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* जैन- तख प्रकाश *
और धर्मास्तिकाय लोकव्यापक होने से इन दोनों के स्कंध लोकप्रमाण हैं और आकाशास्तिकाय लोकालोकव्यापी होने में उसका स्कंध लोकालोकब्यापी है।), (२) देश (स्कंध का एक भाग), (३) प्रदेश (जिसके दो भाग न हो सकें । इस प्रकार तीनों द्रव्यों के नौ और काल द्रव्य मिलकर रूपी जीव के दस भेद होते हैं। इनमें रूपी जीव के चार भेद मिला देने से चौदह भेद हो जाते हैं । चार भेद यह हैं -- (१) पुद्गलास्तिकाय का स्कंध, (२) पुद्गलास्तिकाय का देश, (३) पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश और (४) पुद्गल - परमाणु । (स्कंध के साथ मिला हुआ परमाणु प्रदेश कहलाता है और जब वह अलग हो जाता है तो परमाणु कहलाता है ।)
जीव के विस्तार से ५६० भेद हैं । इन में रूपी जीव के ३० भेद और रूपी जीव के ५३० भेद हैं ।
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रूपी अजीव के भेद -- दस भेद पहले कहे जा चुके हैं। उनके अतिरिक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण, यह पाँच बोल चारों के साथ लगाने से वीस भेद हो जाते हैं । और जैसे—धर्मास्तिकाय के पाँच भेद हैं। धर्मास्तिकाय द्रव्य से एक है, क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, काल से अनादि अनन्त है, भाव से अरूपी, अगंध रस, और स्पर्श है अर्थात् रूप आदि से रहित है; ग्रण से जीवों और पुद्गलों के गमन में सहायक है । धर्मास्तिकाय द्रव्य से एक है, क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, काल से अनादि-अनन्त है, भाव से रूप रस गंध स्पर्श से रहित है और गुण से जीवों तथा पुद्गलों की स्थिति में सहायक है । आकाशास्तिकाय के ५ भेद हैं- द्रव्य से आकाश एक ही है, क्षेत्र से लोक और अलोक में सर्वत्र व्याप्त है, काल से यदि अन्त रहित है, भाव से अरूपी, अवर्ण, गंध, रस और अस्पर्श है, गुण से अवगाहना स्वभाव है अर्थात् अन्य सब द्रव्यों को अवकाश देता है । काल के पाँच भेद हैं- द्रव्य से अनेक हैं, क्षेत्र से व्यवहार काल द्वीप के चन्द्र-सूर्य की गति के कारण समय, बड़ी, पह, रात, दिन, प मास, वर्ष आदि सामरोपम तक निना जाता है । अढ़ाई द्वीप से बाहर चन्द्र-सूर्य के स्थिर होने के कारण वहाँ रात्रि-दिन आदि का कोई