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ॐ जेन-तत्त्व प्रकाश
(२१) गुणग्राहक हो। गुणों को ही ग्रहण करे। कदाचित् वक्ता में कोई दोष दृष्टिगोचर हो तो उसे त्याग दे।
उक्त इक्कीस गुणों के धारक श्रोताओं की सभा में ही पण्डित पुरुषों के ज्ञान की खूबियाँ प्रकट होती हैं। पण्डित तो दुकानदार के समान सूक्ष्म, बादर, व्यावहारिक, नैश्चयिक, शास्त्रीय, यसमय, परसमय आदि अनेक प्रकार के कथनों के ज्ञाता होते हैं । जैसे हल्दी के ग्राहक के सामने केसर का डिब्बा खोलना वृथा है और टाट के ग्राहक के समक्ष रेशम पेश करना व्यर्थ है, उसी प्रकार अल्पज्ञ या अज्ञ श्रोताओं के समक्ष शास्त्र की गूढ़तर बातें कहना भी वृथा हो जाती है। अतएव पण्डित जैसी परिषद् देखते हैं, वैसा ही व्याख्यान कर देते हैं। मगर ज्ञान की गहन बातों को पूर्वोक्त प्रकार के श्रोता ही समझ पाते हैं। ऐसा श्रोता भी संसार में दुर्लभ है ।
शुद्ध श्रद्धान
'सद्धा परम दुल्लहा ।' श्री जिनेश्वर भगवान् ने कहा है कि आत्मा को श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति होना बहुत कठिन है। शास्त्रों के श्रवण करने का अवसर अनेक बार मिल जाता है, मगर उस पर श्रद्धा करने वाले कोई विरले ही होते हैं । (१) कितनेक समझते हैं कि हमारे बाप-दादा सुनने आये हैं, तो हमें भी सुनना चाहिए। ये लोग कुल की रूढ़ि के अनुसार सुनते हैं। (२) कुछ लोग समझते हैं कि हम जैन कुल में जनमे हैं तो व्याख्यान भी सुन लेना चाहिए। (३) कोई-कोई यह खयाल करते हैं कि हम बड़े नामांकित हैं, आगे बैठने वाले हैं, हमें सब धर्मात्मा समझते हैं, इसलिए हमें व्याख्यान जरूर सुनना चाहिए । इससे हमारा मान-महात्म्य बना रहेगा। (४) किसी-किसी का विचार होता है कि अपने गाँव में साधु आये हैं-उपदेशक आये हैं, अगर ५-१० मनुष्य भी व्याख्यान सुनने नहीं जाएँगे तो अपने गाँव की बदनामी होगी। (५) कुछ लोग सोचते हैं-व्याख्यान सुनेंगे तो साधुजी खुश हो जाएँगे। कदाचित