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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
शास्त्रज्ञ पण्डित आदि श्रावक-श्राविका भौजूद हैं। पंचम आरे के अन्त तक एक भव करके मोन जाने वाले चारों संघ बने रहेंगे। किन्तु अच्छे पदार्थ बहुन थोड़े होने है । श्रद्धाहीन लोग उन्हें देख नहीं पाते।
तात्पर्य यह है कि कई लोग धर्म का उपदेश तो सुन लेते हैं, परन्तु उन्हें उस धर्म पर श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धा के अभाव में उनका धर्मश्रवण यथातथ्य फलदायक नहीं होता । अतएव धर्म में श्रद्धा का होना बड़ा कठिन है। जिन्हें धर्मश्रद्धा प्राप्त है, वे भाग्यशाली हैं, पुण्यात्मा हैं।
धर्मस्पर्शना
पूर्वोक्त नौ साधनों की सार्थकता इस दसवें साधन से अर्थात् धर्म की स्पर्शना में है । किन्तु धर्मस्पर्शना की प्राप्ति होना सबसे कठिन है। धर्म पर श्रद्धा रखने वाले सम्यक्त्वी जीव चारों गतियों में असंख्यात पाये जाते हैं, किन्तु पूर्ण रूप से धर्म को स्पर्शना करने वाले सिफ मनुष्यगति में ही पाये जाते हैं । मनुष्यों में अधिकांश मनुष्य तो उक्त साधनों को प्राप्त करके भी धर्मस्पर्शना से वंचित रह जाते हैं । इसके प्रधान कारण दो हैं जिनके प्रत्याख्यानावरण कषाय आदि चारित्रमोहनीयकर्म की प्रकृतियों का प्रबल
(१०) पृथ्वी के समान-पृथ्वी को जितनी ज्यादा खोदें, उतनी ही कोसल निकलती है और उतनी ही उपज ज्यादा देती है, उसी प्रकार कोई-कोई श्रोता बहुत तकलीफ देकर ज्ञान ग्रहण करता है, किन्तु बादमें अपने ज्ञान आदि गुणों का खूब विस्तार करता है।
(११) इत्र के समान-इत्र ज्यों-ज्यों ज्यादा मसला जाता है, त्यों-त्यों अधिक भुगम्भ देता है, उसी प्रकार कितनेक श्रोता गुरु की प्रेरणा पाकर कुशल बनते हैं और अपने सगुण मौरम का प्रसार करते हैं । (यह दो मध्यम श्रोता है)
(१२) बकरी के समान-जैसे बकरी बड़ी सावधानी से स्वच्छ पानी पीती है.पानी को लेश मात्र भी गॅदला नहीं करती, उसी प्रकार कितनेक श्रोता, वक्ता को तनिक भी कष्ट नहीं पहुंचाते, वे वक्ता की अल्पज्ञता आदि का विचार नहीं करते, किन्तु सद्गुण ही ग्रहण करते हैं।
(१३) गाय के समान-जैसे गाय जूठन और सूखा घास खाकर भी उत्तम और मधुर दूध देती है, उसी प्रकार कितनेक श्रोता साधारण उपदेश सुनकर भी उसे असाधारण का में परियात कर लेने है।
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