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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
क्या दोष है ? इसी प्रकार अगर पण्डितों का उपदेश मूढ़ पुरुषों पर असर नहीं करता तो उपदेशक का क्या कसूर है ? कोरडू मूंग को हजारों मन श्राग-पानी से पकाया जाय तो भी वह नहीं पकता है, इसी प्रकार अभव्य, दुर्भव्य और दुर्लभबोधि जीवों के कठिन हृदय में तीर्थंकरों का कथन असर नहीं करता तो साधारण उपदेशक का तो कहना ही क्या ?
चार कोस का मांडला, वे वाणी के धोरे ।
भारी कर्मे जीवड़ा, वहाँ भी रह गये कोरे ॥ मराठी के एक जैन कवि ने भी कहा है:अभंग-असतां गोरस एक त्वचा आड ।
सांडूनी गोचीड रक्त सेवी ॥ काय कावल्या सी रुचै मुक्ता चारा ।
सन्मति दातारा दास म्हणे ॥ अर्थात्-जैसे गाय के थन से लगी हुई जौंक दूध को छोड़कर रक्त पीती है, उसी प्रकार अपात्र श्रोता, वक्ता के उपदेश में रहे हुए गुणों को छोड़कर दुर्गुण को ही ग्रहण करते हैं। जैसे मुक्ताफल का आहार हंस को ही रुचता-पचता है, उसी प्रकार योग्य श्रोता गुण ही ग्रहण करता है। इसके विपरीत जैसे कौवा श्रेष्ठ फलों को छोड़कर मिष्ठा में ही मजा मानता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव गुणों को छोड़कर अवगुण ही ग्रहण करता है ।*
* श्रीनन्दीयसूत्र में चौदह प्रकार के श्रोता कहे हैं । वे इस प्रकार हैं:
(१) चलनी के समान-जैसे चलनी अच्छे-अच्छे अनाज को छोड़कर भीतर असार (छिलका, तिनका, कंकर आदि) पदार्थों को धारण कर रखती है, उसी प्रकार कोई-कोई श्रोता सद्बोध सुन कर उसमें सार वस्तु-गुण छोड़ कर असार वस्तु को ही ग्रहण करते है।
(२) मार्जार के समान-जैसे बिल्ली पात्र में रक्खे दूध को पहले ज़मीन पर बिखेर देती है और फिर विखेरे हुए दूध को चाट चाट कर पीती है, उसी प्रकार कितनेक श्रोता पहले वक्ता का चित्त दुखी करके फिर उपदेश श्रवण करते हैं। .
(३) बगुला के समान-जैसे बगुला उपर से निर्मल धवल दिखाई देता है किन्तु भीतर कपट रखता है कि कब मछली को पकड़ लू उसी प्रकार कोई-कोई श्रोता ऊपर से वक्ता की भक्ति करते हैं, पर भीतर ही भीतर कपट रखते हैं।