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* सूत्र धर्म *
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करके केवलज्ञान और केवलदर्शनमय परमात्मा बन जाता है। इस कारण आत्मा अनन्त शक्तिमान् कहलाता है ।
जैसे जड़ परमाणुओं के संयोग से स्कंध बनता है, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशों का समूह जीव है । परमाणुओं का संयोग-वियोग होता है किन्तु आत्मा के प्रदेशों का संयोग-वियोग नहीं होता। आत्मा अपने स्वभाव से ही, अनादिकाल से असंख्यात प्रदेशी है और अनन्तकाल तक रहेगा। वह असंख्यात प्रदेशों का अखण्ड पिएड है।
जीव के भेद
श्री ठाणांगसूत्र में, द्वितीय ठाणे में, दो प्रकार के जीव कहे हैं'रूवी जीवा चेव, अरूवी जीवा चेव ।' अर्थात् जो कर्मरहित शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप सिद्ध परमात्मा हैं वे अरूपी हैं। अरूपी होने के कारण रूपी कर्म उनका स्पर्श नहीं कर सकते हैं । इस कारण उनके स्वभाव में कभी विकार नहीं होता। वे सदा काल अपने शुद्ध स्वरूप में ही स्थित रहेंगे। संसारी जीव कथंचित् रूपी हैं। जैसे खदान का सोना अनादि काल से मिट्टी के सम्बन्ध का धारक है, उसी प्रकार संसारी जीव भी अनादि काल से कर्मपुद्गलों से स्पृष्ट और बद्ध है। पहले के बँधे हुए कर्मों के कारण ही नवीन कर्मों का आकर्षण होता है और पुद्गलों की न्यूनाधिकता के ही कारण जीव में गुरुत्व-लघुत्व आता है। इस गुरुता और लघुता के प्रभाव से जीव को उच्च और नीच योनियाँ प्राप्त होती हैं। उसे नाना प्रकार के शरीर थारण करने पड़ते हैं और शरीरों के कारण उसका रूपान्तर होता है। यह रुपान्तर ही जीव की पर्याय कहलाती है। तात्पर्य यह है कि कर्मयुक्त (संसारी) जीव अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं । यों तो जीवों के अनन्त भेद हैं, किन्तु मुमुक्षु जीव सरलता से समझ सकें, इस प्रयोजन से शास्त्र में परिमित संख्या में उनका समावेश किया गया है। विभिन्न अपेक्षाओं से जीवों के भेद अनेक प्रकार के होते हैं। बधा: