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ॐ सूत्र धर्म
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अर्थात् विश्व के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान ही है। ज्ञान के द्वारा ही जीव और अजीव रूप वस्तुओं का स्वरूप समझा जाता है। जब आत्मा में ज्ञान का दिव्य प्रकाश उदित होता है तो अज्ञान और मोह का नाश हो जाता है। इससे राग और द्वेष का क्षय होता है और राग-द्वेप का क्षय होने पर एकान्त सुख-स्वरूप मुक्तदशा प्राप्त होती है ।
अक्षय और शाश्वत सुख के इच्छुक मुमुक्षु जनों को, जब तक सर्वज्ञता (केवलज्ञान) प्राप्त न हो तब तक सर्वज्ञता प्राप्त कराने वाले श्रुतज्ञान का यथाशक्ति अवश्य ही अभ्यास करना चाहिए, जिससे इच्छित अर्थ की प्राप्ति हो सके।
श्रुतज्ञान भी अपार और अनन्त है । सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर सकना आज सम्भव नहीं है । अतएव मुमुक्षु पुरुषों के लिए जिस श्रुतज्ञान की खास आवश्यकता है, उसका स्वरूप संक्षेप में दिखलाया जाता है।
जीवाजीवा य वंधो य, पुण्णं पावासको तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं ।
भावेणं सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ अर्थात्-जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, श्रास्त्रत्र, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह नौ तत्त्व हैं । इन नौ तत्वों को जो स्वभाव से अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से, जातिस्मरण आदि ज्ञान प्राप्त करके गुरु आदि के उपदेश के बिना ही जानता है अथवा गुरु आदि के उपदेश से जो जानता है, उसी को सम्यक्त्वी समझना चाहिए । अर्थात् जो इन तत्वों के यथार्थ स्वरूप को जानता है वही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। सम्यक्त्व, मोह की प्रथम सीढ़ी है । समकित के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव मुमुक्ष जनों को सर्वप्रथम नौ तत्त्वों का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए। इसलिए यहाँ नौ तत्वों का स्वरूप नय-निक्षेप आदि से दिखलाया गया है।