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सूत्रधर्म
पढमं नाणं तो दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किंवा नाहीइ सेयपावगं ॥
-दशवैकालिक, अ०४ अर्थात्-पहले ज्ञान प्राप्त हो तो फिर दया-संयम का पालन किया जाता है। संसार में जितने भी संयत हैं, वे सभी इसी प्रकार संस्थित हैं। जो बेचारे अज्ञानी हैं वे क्या कर सकते हैं! वे अपने कल्याण और अकल्याण को कैसे समझ सकते हैं ? उन बेचारों को यह समझ नहीं होती कि मेरी आत्मा के कल्याण का उपाय क्या है और किस उपाय से हम दुःख से बच सकेंगे?* अतएव सुखार्थियों को सबसे पहले ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । कहा है:
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवञ्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एमंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥
-श्रीउत्तराध्ययनसूत्र, अ०३
* अन्यत्र भी कहा है:मातेव रक्षति पितेव हिते वियुङ्कते, कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय खेदं । लक्ष्मीस्तनोति वितनोति च दिक्ष कीर्ति, किं किन्न साधयति कल्पलतेव विद्या ।
विद्या से क्या-क्या लाभ नहीं होता ? वह माता की भाँति रक्षा करती हैं, पिता की तरह हित में प्रवृत्त करती है, स्त्री के समान खेद को हरण करके श्रानन्द देती है, लक्ष्मी की प्राप्ति कराती है, संसार में कीति फैलाती है। इस प्रकार सदविद्या कल्पलता के समान है।