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जैन-तत्त्व प्रकाश ®
जीव तत्व
जोव का स्वरूप जिसमें चेतना अर्थात् ज्ञान और दर्शन गुण पाया जाय उसे जीव कहते हैं। जीव अनादि अनन्त शाश्वत पदार्थ है। न कभी किसी ने उसे बनाया है और न कभी उसका विनाश होता है। अर्थात् जीव स्वयंसिद्ध है। सदा काल जीवित रहने से वह 'जीव' कहलाता है। जिस प्रकार अग्नि का गुण प्रकाश या उष्णता अग्नि से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार जीव का गुण चेतना जीव से पृथक् नहीं है। सभी जीव केवलज्ञान और केवलदर्शन की योग्यता के धारक हैं; किन्तु जैसे मेघों से आच्छादित सूर्य का प्रकाश ढुक जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि के कर्मपुद्गलों से संसारी जीव के ज्ञान-दर्शन गुण ढंके हुए हैं। फिर भी सघन से सघन मेघों द्वारा आच्छादित सूर्य रात और दिन का विभाग दिखलाता है, उसी प्रकार निविडतर कर्मों से आच्छादित आत्मा भी अपने ज्ञानादि गुणों को किसी न किसी अंश में अवश्य प्रकाशित करता है। अर्थात् जीव को चेतना का सदैव-निरन्तर प्रतिभास बना रहता है। मेघों को चीर कर जैसे सूर्य की किरणें प्रकट होती हैं, उसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय ज्ञान हैं और चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन हैं । ऐसा कोई संसारी जीव नहीं है जो मति-श्रुत ज्ञान और अचक्षुदर्शन से रहित हो। जैसे रंगीन काच में से सूर्य की किरण का प्रकाश स्वच्छता-रहित, काच के रंग जैसा ही लाल या हरा आदि पड़ता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान का विपरीत प्रकाश पड़ता है।
जीव ज्ञान-दर्शन का धारक होने से ही चेतन कहलाता है। अपने चेतना गुण के कारण ही वह सुख-दुःख का वेदन करता है। इस वेदना के कारण कर्म से बँधता भी है और छूटता भी है। इस तरह क्रम-क्रम से कोई जीव कम रूपी सब बादलों को दूर करके अपने सम्पूर्ख निज मुलों को प्रकट