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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
के त्यागी, पथप्रदर्शक विद्वान् गुरुओं का समागम होना कठिन है । किसी ने कहा है:
पाखण्डी पूजाय छे, पण्डित पर नहीं ध्यान ।
गोरस लो घर-घर कहे, दारू मिले दुकान ॥ दध जैसे उत्तम पदार्थ को बेचने वाली गुवालिन घर-घर फिरती है और कहती है-दूध लो, दूध लो। फिर भी दूध के ग्राहक बहुत कम होते हैं। किन्तु शराब जैसी अपवित्र और निन्दनीय वस्तु दुकान पर ही बिकती है फिर भी वहाँ लेने वालों की भीड़ लगी रहती है। इसी प्रकार गाँव-गाँव विचरने वाले उत्तम ज्ञानी गुरु को मानने वाले जगत् में थोड़े होते हैं और ज्ञानहीन तथा पाखण्डियों का सत्कार-सन्मान और पूजा-भक्ति करने वाले बहुत होते हैं ! यहाँ तक कि कई धर्मान्ध तो अपनी प्यारी पत्नी को भी सेविका के रूप में उन्हें समर्पित कर देते हैं। इससे अधिक मृढ़ता और क्या हो सकती है ? कहा भी है:
गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाव।
दोनों बूड़े वापड़े, बैठ पत्थर की नाव ।। लोभी गुरुओं को चेले भी लालची मिलते हैं। दोनों अपने-अपने स्वार्थ के दाव खेलते हैं और एक दूसरे को तथा दुनिया को भरमा कर तरह-तरह की कुचालें सिखाते हैं । मगर ऐसे गुरु और चेले आखिर संसारसागर के कीचड़ में फंस कर अनेक दुःख उठाते हैं। ऐसे पाखंडी आत्मा का कल्याण किस प्रकार कर सकते हैं ? जो अपने नीच स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए ही सगा बना है और जिसका चित्त स्वार्थसाधना में ही निरन्तर संलग्न रहता है,वह कैसे स्वयं तिरेगा और कैसे दूसरों को तारेगा ?
कानिया मानता कर, तू चेलो मैं गुर।
रुपया नारियल धर, भावे डूब के तर । पाखंडी गुरु अपने भोले चेले से कहता है-हे कानिया ! मेरी मान्यता कर । तू मेरा चेला है और मैं तेरा गुरु हूँ। तू रूपया और नारियल मेरे चरणों रख दे, फिर चाहे तू दूब या तर; इसकी मुझे चिन्ता नहीं है।