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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
होता है, कोई गँगा होता है। ऐसे पुरुषों के लिए जीवन भारभूत हो जाता है और वे आत्मार्थ की साधना नहीं कर सकते। आत्म-साधना के लिए परिपूर्ण और नीरोग इन्द्रियों की आवश्यकता होती है । शास्त्र में कहा है:
जार्विदिया न हायंति ताव धम्म समायरे । अर्थात् जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती तब तक धर्म का आचरण कर ले । कान से बहिरा धर्मश्रवण नहीं कर सकता और धर्मश्रवण के लिए मोक्ष की प्राप्ति होना कठिन है। अन्धा आदमी धर्मश्रवण करके भी जीवों की दया नहीं पाल सकता। अतएव पाँचों इन्द्रियों का नीरोग होना बहुत आवश्यक है । इन्द्रियों की सफलता और नीरोगता होना प्रबल पुण्य का उदय समझना चाहिए। सौभाग्य से जिन्हें ऐसी इन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं उन्हें धर्म का आचरण करके इन्द्रियों को सार्थक बनाना चाहिए। विषयों में लगाकर महान् पुण्य से प्राप्त हुई सामग्री के बदले पापोर्जन नहीं करना चाहिए। जो लोग परिपूर्ण इन्द्रियाँ पाकर उन्हें भोगों में लगाते हैं, वे चिन्तामणि को कौवा उड़ाने के लिए फैंक देने वाले मूर्ख पुरुष के समान हैं।
६-नीरोग शरीर
परिपूर्ण इन्द्रियाँ प्राप्त हो जाने पर जब तक शरीर नीरोग न हो तब तक धर्म की आराधना नहीं होती। रोगी मनुष्य सदा व्याकुल बना रहता है और निरन्तर आध्यान किया करता है। ऐसी स्थिति में स्वस्थ चित्त से निराकुलतापूर्वक आध्यात्मिक साधना संभव नहीं है। अतएव शारीरिक स्वस्थता रूप छठे साधन का मिलना भी बहुत कठिन है । शास्त्र में कहा है'वाही जाव न वड्ढई, ताव धम्म समायरे' अर्थात् जब तक शरीर में व्याधि का जोर नहीं बढ़ा है, तब तक धर्म कर ले ! अपने शरीर में पाँच करोड़, अड़सठ लाख, निन्न्यानवे हजार, पाँच सौ, चौरासी (५६८६६५८४) रोग गुप्त या प्रकट रूप में रहते हैं । जब तक पुण्य कर्म की प्रबलता है तबतक वे सब रोग भीतर दबे रहते हैं। पर जब पाप का उदय होता है तब वे प्रकट हो