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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
दुःख हैं। इस प्रकार बालक और वृद्ध अवस्था के बारह हजार दिन बेकार गये ! अब छह हजार दिन युवावस्था के रहे। उनमें भी कभी-कभी अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं और रोगजन्य वेदना आकुल-व्याकुल बना देती है। कदाचित् रोग से छुटकारा मिला तो किसी स्वजन के वियोग का दुःख आ पड़ता है और विलाप ही विलाप में बहुत-से दिन निकल जाते हैं। कदाचित् इससे शांति मिली तो लेन-देन, लाभ-हानि, इज्जत-आवरू, तेजी-मन्दी, रगड़ा-झगड़ा, सगाई-विवाह आदि अनेक उपाधियाँ लग जाती हैं ! प्रतिदिन हिसाब रखने वाले भाइयो ! अब जरा विचार करके देखो कि अगर आपकी आयु पूरे सौ वर्ष की हो तो भी आप कितने दिनों तक सुख भोग सकते हैं ? और भी कहा है:
गब्भाइ मज्जति बुयाबुयाणं, नरा परा पंचसिहा कुमारा। जोवणगा मज्झिमा थेरगायं, चयंति आउक्खय पलीणा ॥
संभोग के समय नौ लाख संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य स्त्री के गर्भाशय में उत्पन्न होते हैं। इनमें से एक, दो या चार जीवित रहते हैं, शेष सब पुरुष के वीर्य के स्पर्श से मर जाते हैं । कुछ गर्भाशय में तत्काल, कुछ गर्भाशय में कुछ महीना बीतने पर और कुछ असह्य संयोग मिलने से मर जाते हैं । कई मनुष्य जनमते समय आड़े आ जाते हैं तब उन्हें काट-काट कर निकालना पड़ता है। जन्म होने के अनन्तर कितने ही मनुष्य अज्ञान के कारण बचपन में ही मर जाते हैं और कितने ही भर जवानी में काल के ग्रास बन जाते हैं । बहुत थोड़े मनुष्य विविध प्रकार के विघ्नों से बच कर वृद्धावस्था सक जीवित रह पाते हैं, फिर भी आखिर एक न एक दिन उन्हें भी शरीर त्याग कर दूसरी पर्याय धारण करनी पड़ती है। चक्की के दो पाटों के बीच जो दाना आ गया है, वह साबित नहीं रह सकता । चक्की के कुछ ही चक्कर फिरने पर वह पिसे बिना नहीं रहता । इसी प्रकार जगत् में काल रूपी घंटी है। उसके दो पाट हैं-भूतकाल और भविष्यकाल ।* इन दोनों पाटों के
* आदित्यस्य गतागतैरहरहै। संक्षीपते जीवितम्, व्यापारबहुकार्यभारगुरुमिः कालो न विज्ञायते ।