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जैन-तत्त्व प्रकाश
सभी वस्तुओं को हड़प जाना, इन्द्रियों पर तनिक भी काबू न रखना, सदा मजा-मोज में तथा परस्त्रियों के साथ विषयभोग में आनन्द मानना, किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर दिल में अनुकम्पा न आना, सदा षटकाय के जीवों की हिंसा किया करना, मद्य-मांस का भक्षण करना, किसी को किंचित् भी दान न देना, महापरीग्रही कंजूस एवं तृष्णावान् होना, कोई उदार दान देता हो तो उसे भी रोक कर अन्तराय डालना, आत्मदमन, नियम, व्रत-प्रत्याख्यान करना, यह सब चांडाल के लक्षण हैं। जिसमें यह बातें पाई जाती हैं उसे नीच जाति का समझना चाहिए। इसके विपरीत जिसमें यह पूर्वोक्त लक्षण न पाये जाते हों, बल्कि जो यथाशक्ति जप, तप, इन्द्रियदमन, दया दानादि सत्कार्य करे उसे उच्चजातीय-उत्तम कुल का कहना चाहिए । ऐसा उत्तम कुल जैन कुल है और उसमें जन्म मिलना तीव्र पुण्य का फल समझना चाहिए।
४-दीर्घ आयु
उत्तम कुल मिल जाने पर भी यदि आयु अल्प मिली तो कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । अतएव दीर्घायु का मिलना भी आवश्यक है । जिसने पहले महान् और उग्र पुण्य का उपार्जन किया है, उसी को पूर्वोक्त समस्त सामग्री के साथ दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। तीसरे और चौथे आरे के मनुष्यों की आयु पूर्व-परिमित थी। उनकी आयु के जितने सैंकड़े होते हैं, आजकल उतने श्वासोच्छ्वास की भी आयु नहीं होती। सौ वर्ष के कुल श्वासोच्छ्वास चार अरब, सात करोड़, अड़तालीस लाख और चालीस हजार होते हैं ! इसमें भी सुखपूर्वक सौ वर्ष पूरा करने वाला तो कोई बिरला ही भाग्यशाली होता है। कहा भी है:
आयुर्वर्षेशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्थं गतम्, तस्यार्धस्य परार्थचार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः । शेष व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते, बीवे वारितरंगचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ।