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® धर्म प्राप्ति ®
सारांश-आजकल मनुष्य की उत्कृष्ट आयु करीब सौ वर्ष की होती है। इस सौ वर्ष की जिन्दगी में मनुष्य को कितना सुख मिलता है, इस बात का बनिये की तरह हिसाब करके देखें । एक वर्ष के ३६० दिन होते हैं और सौ वर्ष के ३६००० दिन हुए। इनमें से आधे अर्थात् अठारह हजार दिन तो निद्रा में चले गये । कहा है-'निद्रा गुरुजी बिन मौत मूवा' अर्थात् हे गुरुजी ! निद्रा बिना मौत की मौत है ! निद्रा में सुख-दुःख का स्पष्ट भाव नहीं रहता । शेष अठारह हजार दिन रहे । उनके तीन भाग कर लें । एक भाग अर्थात् छह हजार दिन वाल्यावस्या में व्यतीत हो गये । यह दिन भी अज्ञान अवस्था में ही व्यतीत किये समझने चाहिए, क्योंकि बालक को सत्य-असत्य का भान नहीं होता। दुसरे छह हजार दिन वृद्धावस्था में व्यतीत होते हैं। वृद्धावस्था महादुःख का कारण है । शास्त्र में जगह-जगह कहा है-'जन्मदुःखं जरादुःखं ।' इस अवस्था में मन मौज-शौक भोगने की इच्छा करता है, किन्तु इन्द्रियाँ बहुत निर्बल हो जाती हैं । उत्तम खान-पान आदि का सेवन किया जाय तो उलटा दुःख बढ़ जाता है । * बुढ़ापे में आँखों से ठीक तरह दिखाई नहीं देता, कानों से सुनाई नहीं देता, दाँत गिर जाने से खाने में मजा नहीं पाता और खुराक पूरी तरह चवाया न जाने के कारण पचता नहीं है । अपच अनेक रोगों को उत्पन्न करता है । बूढ़े आदमी का शरीर अशक्त, निकम्मा और अप्रिय हो जाता है। उसकी ऐसी हालत देखकर स्वजन भी उसका अपमान करते हैं । इस प्रकार वृद्धावस्था में अनेक
* वलिभिमुखमाकान्तं पलितैरङ्कितं शिरः ।
गात्राणि शिथिलायन्ते, तौका तरुणायते ।। अर्थात्-बुढ़ापे में चमड़ी में सिकुड़न पड़ गई है, मस्तक के बाल सफेद हो गये हैं, और सब अङ्गोपांग ढीले पड़ गये हैं। सिर्फ एक मात्र तृष्णा हरी-भरी है!
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न घातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
अर्थात्-हमने भोग नहीं भोगे, बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया है। हमने तप तो तपा नहीं, फिर भी दुःख रूपी ताप से मन संतप्त हो गया-शरीर दुर्बल हो गया। लोग कहते हैं, समय बीत गया, पर समय नहीं बीता हम स्वयं बीत गये । हम जीणे हो गये, पर तृष्णा जीर्ण नहीं हुई।