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* धर्म प्राप्ति
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जाते हैं और शरीर का विनाश कर डालते हैं ! ज्वर, सिर की पीड़ा, पेट में वायु का दर्द आदि रोग सदा लगे रहते हैं तो धर्मक्रिया किस प्रकार हो सकती है ? कहावत है - पहला सुख निरोगी काया । शरीर तन्दुरुस्त हुआ तो सब बातें अच्छी लगती हैं और दान, जप, तप, ध्यान, संवर आदि मोक्ष की करनी होती है। मगर इस नीरोग शरीर का मिलना बड़ा कठिन है। जिन्हें पुण्ययोग से नीरोग शरीर मिला है, उनका कर्त्तव्य है कि वे उसको सफल करके श्रात्महित साध लें ।
किसी-किसी जगह छठा साधन 'धन का सुयोग' गिनाया है । मराठी भाषा में कहते हैं - 'पहिले पोटोबा मग विठोबा' अर्थात् पहले पेटपूर्ति का साधन मिले तो फिर परमेश्वर का नाम याद आता है । लक्ष्मी का संयोग हो और साथ ही संतोषगुण की प्राप्ति हो जाय तो निश्चिन्तता से धर्मध्यान किया जा सकता है । अतएव लक्ष्मी का संयोग मिलना भी कठिन है । जिन्हें लक्ष्मी का सुयोग मिला है, वे अगर उसके द्वारा आत्मकल्याण करते हैं तो लक्ष्मी सार्थक है । अन्यथा वही लक्ष्मी उन्हें डुबाने वाली सिद्ध होती है । श्रतः हे लक्ष्मी-पति ! पुरुष से मिली लक्ष्मी को पाप का साधन मत बना । उसे धर्मकार्य में लगा कर पुण्य की वृद्धि कर और आत्महत में लग जा ।
सद्गुरु का समागम
पूर्वोक्त छह बातें जीव को अनन्त वार मिली हैं, फिर भी कार्यसिद्धि नहीं हुई, क्योंकि जब तक सातवें साधन 'सद्गुरु की संगति' न मिल जाय तब तक वह सब वृथा हैं । सद्गुरु का समागम मिलना बड़ा कठिन है । इस जगत् में पाखण्डी, दुराचारी, स्वार्थी, ढोंगी गुरु तो गलियों-गलियों में मारे-मारे फिरते हैं । मगर वे पत्थर की नौका के समान हैं, जो आप डूबते और अपने आश्रितों को भी डुबाते हैं। ऐसे कुगुरुओं की संगति करने से तो बिना गुरु का रहना ही क्या बुरा है ? जीवन-शुद्धि और आत्मकल्याण
के लिए संयमी गुरुत्रों के समागम की आवश्यकता है । ऐसे कनक कामिनी