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® जैन-तत्त्व प्रकाश
फिर अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय हुआ । इन संज्ञी
और असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय हुआ। इन संज्ञी और असंज्ञी तिर्यश्च पंचेन्द्रियों की चार लाख जातियाँ हैं और पाँच भेद हैं। पाँचों भेदों का विवरण इस प्रकार है:-(१) जलचर (पानी में रहने वाले मच्छ, कछुवा आदि जीव) के साढ़े बारह करोड़ कुल हैं। असंज्ञी और संज्ञी दोनों प्रकार के जलचर जीवों की उत्कृष्ट आयु करोड़ पूर्व की है। (२) थलचरों (पृथ्वी पर चलाने वाले गाय, घोड़ा, आदि प्राणियों) के दस लाख करोड़ कुल हैं। असंज्ञी जलचर की उत्कृष्ट आयु चौरासी हजार वर्ष की है और संज्ञी की तीन पल्योपम की है । (३) खेचरों (आकाश) में उड़ने वाले कबूतर, तोता आदि पक्षियों) के बारह लाख करोड़ कुल हैं । असंज्ञी खेचर की उत्कृष्ट अायु पल्य के असंख्यातवें भाग है । (४) उरपरिसों (रेंगकर चलने वाले साँप, अजगर श्रादि प्राणियों) के नौ लाख करोड़ कुल हैं। असंज्ञी उरपरिसर्प की उ० आयु ५३ हजार वर्ष की करोड़ पूर्व की है। (५) भुजपरिसर्प (भुजाओं के बल से चलने वाले चूहे आदि प्राणियों) के नौ लाख कुल हैं । असंज्ञी भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट आयु बयालीस हजार वर्ष की है और संज्ञी भुजपरिसर्प की करोड़ पूर्व की है । इन पाँचों में जीव लगातार आठ भव करता है । इन आठ में से सात भव संख्यात आयु वाले एक भव असंख्यात वर्ष की आयु वाला होता है।
इस प्रकार विविध प्रकार की अवस्थाओं में भीषण दुःख भोगताभोगता जीव कभी नरक में चला जाता है। नरक के जीवों की चार लाख जातियाँ हैं और पच्चीस लाख करोड़ कुल हैं । नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयु ३३ सागर की है। नरक में एक साथ एक ही भव होता है। लगातार दूसरा भव नहीं होता। अर्थात् नरक जीव नरक से निकल कर फिर अगले भव में नरक में उत्पन्न नहीं होता।* परिभ्रमण करते-करते जीव पुण्ययोग इन वेदनाओं को सहन करने से भी अकामनिर्जरा होती है । यह भी पुण्यवृद्धि का कारण है।
नरक और देवगति का एक-एक ही भव होता है। नरक जीव मर कर नरक में नहीं उत्पन्न होता और देव मर कर देव नहीं होता। इसके जतिरिक्त नरक का जीव मरकर देव नहीं होता और देव मर कर नारक नहीं होता। इसका कारण यह है कि अशुभ कर्म करने का विशेष स्थल मर्त्यलोक (मध्यलोक) है। यहाँ किये हुए शुभ कर्मों का फल देवगति