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* जैन-तत्व प्रकाश *
१-मनुष्यभव
मानव भव कितना दुर्लभ है, इस विषय का थोड़ा-सा प्रतिपादन और किया जाता है, जिससे पाठक अपने जीवन का वास्तविक मूल्य समझ सकें और महामूल्यवान् जीवन का सदुपयोग करके अपने कल्याण में प्रवृत्त हों। पहले आत्मा अवकाही निगोद में अर्थात् अव्यवहार राशि में अनन्त काल तक रहा। वहाँ एक-एक श्वास में अठारह बार जन्स-मरण करने का घोर दुःख सहन करता रहा । अकाम कष्ट सहन करने (अकाम-निर्जरा होने पर) अनन्त पुण्य की जब वृद्धि हुई नित्यनिगोद से निकल कर इतरनिगोद-व्यवहार राशि में उत्पन्न हुआ। बहुत-सा काल ब्यवहार राशि में बिताने के पश्चात् जब फिर अनन्त पुण्य का उदय हुआ तब बादर अवस्था प्राप्त हुई । अर्थात् स्थावर हुआ । स्थावर जीवों की अनेक जातियों में अनेक कुलों में और अनेक योनियों में भटकता रहा । वह इस प्रकार
(१) पृथ्वीकाय (मिट्टी)-इस की सात लाख जातियाँ हैं और बारह लाख करोड़ कुल हैं पृथ्वीकाय के जीवों की उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष की है।
प्रदेश के वर्ण आदि की व्याख्या समझ लेनी चाहिए। काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव की स्थूलता और सूक्ष्मता के लिए एक स्थूल दृष्टान्त इस प्रकार दिया जा सकता है:-काल चने जितना, क्षेत्र जवार जितना, द्रव्य बाजरे जितना और भाव सरसौं जितना है।
___ * जातियों का हिसाब इस प्रकार है:-पृथ्वीकाय के मूल मेद ३५० हैं। इनको पाँच वर्ण, दो गंध पाँच रस, पाठ स्पर्श और पाँच संस्थान से अनुक्रम से गुणाकार करने पर ३५०४५४२ x ५४८४५=७००००० जातियाँ पृथ्वीकाय की होती हैं। इसी प्रकार अपकाक, तेजस्काय और वायुकाय के विषय में समझ लेना चाहिए। जिसकी जितनी लाख जातियाँ हों, उसका मूल आधा सैकड़ा ग्रहण करके पूर्वोक्त कणं, गंध, रस, स्पर्श और
और संस्थान से गुणा करने पर निश्चित जाति की संख्या निकल पाती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिसका वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान-जहाँ पाँचों एक-से हों उसकी एक सी जाति कहलाती है। और किसी भी एक में अन्तर पड़ जाय तो जातियाँ भिन्न हो जाती है। माता के पक्ष को जाति कहते हैं। सब जीवों की जातियों ८४ लाख हैं। यथा-भ्रमर की मूल. जानि तो एक है, मगर कोई भ्रमर पुष्प का कोई लक्कड़ का कोई गोबर का होता है।