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धर्म की प्राप्ति
गाथा-लब्भन्ति विउले भोए, लब्भन्ति सुरसंपया ।
लब्भन्ति पुत्तमित्तं च, एगो धम्मो सुदुल्लहो ॥ संसार के समस्त प्राणी एकान्त सुख के अभिलाषी हैं। सुख की कामना से प्रेरित होकर ही जीव निरन्तर नाना प्रकार के ब्यापारों में लगे रहते हैं किन्तु सुख-प्राप्ति की अभिलाषा को पूर्ण करने वाला, इस विश्व में अगर कोई पदार्थ है तो वह एक मात्र धर्म ही है । दूसरे किसी पदार्थ में सुख देने की शक्ति होती तो जीव आज तक दुखी न बना रहता । वर्तमान काल में जो भव है, इससे पहले जीव ने अनन्त भव किये हैं। अनन्त वार मनुष्य भर धारण किया है और अनन्त वार ही देवों का भव धारण किया है । देवों के रत्नजटित महल और दिव्य वस्त्राभूषण आदि सम्पत्ति अनन्त वार मिली है । पुत्र, मित्र, कलत्र आदि स्वजनों से अगर सुख की प्राप्ति होती हो तो वह भी अनन्त वार मिले हैं। फिर भी संसारी जीव को एकान्त सुख की प्राप्ति नहीं हुई। जो सुख सदा सुख ही रहता है-कभी दुःख के रूप में नहीं पलटता ऐसे एकान्त सुख की प्राप्ति केवल धर्म का ही शरण ग्रहण करने से होती है। ऐसे उत्तम धर्म का मिलना बड़ा ही कठिन होता है। शास्त्र में कहा है:
न सा नाई न सा जोणी, नतं कुलं न तं ठाणं । न जाया न मुआ जत्थ, सब्वे जीवा अणंतसो ॥