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द्वितीय खण्ड विषय प्रवेश
( उत्तरार्थ गाथा ) धम्म ट्ठि सुह मे ।
इस ग्रंथ की आदि में जो गाथा लिखी है, उसके पूर्वार्ध की विस्तृत व्याख्यान में प्रथम खण्ड समाप्त हुआ । इस प्रथम खण्ड में अनेक विषयों की विवेचना के साथ श्री अरिहन्त भगवान्, सिद्ध भगवान्, आचार्यजी, उपाध्यायजी और साधु जी के गुणों का भी कथन किया जा चुका है ।
उस गाथा के उत्तरार्ध - भाग का निरूपण करने के लिए यह द्वितीय खण्ड रंभ किया जाता है ।
धर्म महान् और कल्याणकारी है । आत्मा का इच्छित अर्थ सिद्ध करने वाला अर्थात् जरा-मरण के दुःखों का अन्त करके, अनन्त अक्षय याबा मोक्ष - सुख की प्राप्ति कराने वाला है, अतः मुमुक्षु पुरुषों द्वारा ग्रहण करने योग्य है । ऐसे यथातथ्य श्रुत — चारित्र रूप जिस धर्म को मैंने अपने गुरुदेव की कृपा से यत्किंचित् समझ पाया है । भव्य जीवों को उस धर्म का उपदेश करना मेरा कर्त्तव्य है । अतएव दूसरे खण्ड में (१) धर्म की प्राप्ति (२) सूत्रधर्म (३) मिथ्यात्व (४) सम्यक्त्व (५) गृहस्थधर्म और (६) अन्तिम शुद्धि, इन छह प्रकरणों में उसका वर्णन किया जायगा । हे भव्य जीवो ! इस उत्तम धर्म को निज आत्मा का स्वरूप और हितकारी समझकर समीचीन रूप से, मन वचन काय के योगों को स्थिर करके श्रवण करना । ऐसा करने से आपको अनिर्वचनीय आत्मिक सुख की प्राप्ति होगी । आपके हृदय का संताप दूर हो जायगा और शान्ति का अनुभव होगा ।
छद्मस्थ होने के कारण कदाचित् मुझसे कहीं कोई भूल हो जाय तो ज्ञानी जनों के समक्ष मैं क्षमाप्रार्थी हूँ विनती करता हूँ कि हंस की भाँति पानी रूप दोषों को त्याग कर दूध रूप गुणों के ग्राहक बनकर पठनपाठन करेंगे तो अकथनीय आत्मिक सुख प्राप्त करके स्व-परहित साध सकेंगे ।