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® जैन-तत्त्व प्रकाश
ऊपर पाँच परमेष्ठियों का जो विस्तृत विवेचन दिया जा चुका है, इस महामंत्र में उन्हीं को नमस्कार किया गया है। यह महामंत्र समस्त मंत्रों में उत्तम और महामंगलकारी है। यह अनादिनिधन मंत्र है और जैनमात्र को मान्य है। इसका प्रभाव अलौकिक है और इसके स्मरण मात्र से समस्त विघ्नबाधाओं का विधात हो जाता है । इस महामंत्र का अर्थ इस प्रकार है:
१२ गुणों के धारक और चार घनवातिया कर्मों के विदारक श्रीअरिहन्त भगवान को नमस्कार हो । ८ गुणों के धारक, सकलार्थसिद्धि-कारक, सिद्ध भगवान को नमस्कार हो । ३६ गुणों के धारक और धर्मप्रचारक श्री आचार्य महाराज को नमस्कार हो । २५ गुणों के धारक और ज्ञानप्रचारक श्रीउपाध्याय महाराज को नमस्कार हो । २७ गुणों के धारक और आत्मोद्धारक साधु महाराज को नमस्कार हो ।
इस प्रकार पाँचों परमेष्ठी के १२++३६+२५+२७= १०८ स्थूल गुण हैं । इसी कारण माला के मनके भी १०८ ही होते हैं। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की आराधना की शिक्षा देने के लिए और यह प्रकट करने के लिए कि इन तीन रत्नों की आराधना करने से ही परमेष्ठी का परमोत्तम पद प्राप्त होता है, माला के शिखर पर तीन मनके रक्खे गये हैं।
पूर्वार्ध का अन्तिम मंगलाचरण
महन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः। आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा पूज्या उपाध्यायकाः ॥ श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः। पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥
पूर्वार्ध समाप्त