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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
[२३] द्रह-द्रह चार प्रकार के होते हैं-[१] केसरी वगैरह वषधर पर्वत के द्रह में से पानी बाहर निकलता है किन्तु बाहर का पानी उसमें प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार कोई-कोई साधु दूसरों को कुछ सिखाते हैं किन्तु स्वयं कुछ नहीं सीखते। [२] समुद्र के समान पानी भीतर आता है किन्तु भीतर का पानी बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार साधु दूसरों से ज्ञान सीखता है किन्तु स्वयं किसी को नहीं सिखाता । (३) गंगाप्रपात कुंड में जैसे पानी आता भी है और बाहर निकलता भी है, इसी प्रकार कतिपय साधु ज्ञान आदि दूसरे से सीखते भी हैं और दूसरों को भी सिखाते हैं । (४) अढाई द्वीप के बाहर के समुद्रों में पानी न बाहर से आता है और न भीतर से बाहर निकलता है, इसी प्रकार कतिपय साधु न ज्ञान आदि गुण दूसरों से सीखते हैं, न दूसरों को सिखाते ही हैं । इसके अतिरिक्त जैसे द्रह का पानी अतूट होता है, उसी प्रकार साधु के ज्ञान आदि गुणों का भंडार अक्षय होता है।
(२४) कील-जैसे कील पर हथौड़ा मारने पर वह एक ही दिशा में प्रवेश करती है, उसी प्रकार साधु सदैव मोक्ष की ही दिशा में प्रवृत्ति करता है।
(२५) शून्यगृह-जैसे गृहस्थ खंडहर सरीखे सूने घरों की सार-संभाल नहीं करता, उसी प्रकार साधु शरीर रूपी घर की सार-संभाल नहीं करता ।
(२६) द्वीप-जैसे समुद्र में गोते खाने वाले प्राणियों के लिए द्वीप आधारभूत है उसी प्रकार संसार-सागर में बहने वाले त्रस-स्थावर जीवों के लिए श्रमण आश्रय रूप हैं-अनाथों के नाथ हैं।
(२७) शस्त्रधार-जैसे करवत आदि शस्त्रों की धार एक ही ओर काष्ठ चीरती-चीरती आगे बढ़ती है, उसी प्रकार साधु कर्मशत्रुओं का निकंदन करता हुआ एक मात्र आत्मकल्याण के मार्ग में चलता रहता है।
(२६) शकुनि-जैसे पक्षी किसी प्रकार का आहार दूसरे दिन के लिए संगह करके नहीं रखता, उसी प्रकार साधु भी रात-वासी आहार नहीं रखता।