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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ®
अर्थ-(१) क्षमा (२) निर्लोभता (३) सरलता (४) निरभिमानिता (५) लघुत्व (६) सत्य (७) संयम (८) तप (६) त्याग और (१०) ब्रह्मचर्य, यह दस श्रमणधर्म या यतिधर्म कहलाते हैं ।*
(१) क्षमा-क्रोध रूपी शत्रु का निग्रह करना क्षमाधर्म है । 'क्षमायां स्थाप्यते धर्मः' अर्थात् धर्म के रहने का स्थान क्षमा ही है । क्षमा के अभाव में कोई धर्म नहीं टिक सकता । इस कारण धर्म के दस लक्षणों में सबसे पहले क्षमा को स्थान दिया गया है। क्षमाशील पुरुष किसी के द्वारा कहे हुए कटुक वचन सुनकर ऐसा विचार करते हैं:-मैंने इसका कुछ अपराध किया है या नहीं किया है ? अगर अपराध किया है तो उसके बदले मुझे कटुक शब्दों को सहन करना ही चाहिए । विना बदला चुकाये छुटकारा मिल नहीं सकता। अगर इस समय बदला नहीं चुकाऊँगा तो आगे ब्याज सहित चुकाना पड़ेगा । अच्छा ही हुआ कि यह यहीं चुकौता कर रहा है । अगर मैं ने अपराध नहीं किया है और यह कडक वचन कह रहा है तो इससे मेरी क्या हानि है ? यह अपने अपराधी से कह रहा है। मैं निरपराध हूँ। इसलिए इसकी गालियाँ मुझे लगती ही नहीं हैं। बेचारा अज्ञानी बोलते-बोलते स्वयं थक जायगा, तब चुप हो जायगा।' इसके अतिरिक्त क्षमावान् पुरुष यह भी सोचते हैं-'यह मनुष्य मुझे चोर, जार, दुराचारी, ठग, कपटी, चाण्डाल, कुत्ता आदि कहता है सो ठीक ही कहता है । क्यों कि अभी नहीं तो पहले, इस भव में नहीं तो पूर्वभवों में यह कृत्य मैंने किये हैं और कुत्ता एवं चाण्डाल आदि की अवस्थाएँ भी मैं ने धारण की हैं। यह सत्य ही कह
* धृतिः क्षमा दमोऽस्तेय-शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धैर्य विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ।।
-मनुस्मृति ६-२३ । मनुजी ने धर्म के दस लक्षण बतलाये हैं:-(१) धृति, (२) क्षमा, (३) दम, (४) अस्तेय, (५) शौच, (६) इन्द्रियनिग्रह, (७) धैर्य, (८) विद्या, (६) सत्य, (१०) अक्रोध ।
४ देते गाली एक हैं, पलटत होत अनेक । जो गाली देवे नहीं, रहे एक की एक ॥