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(२) शंख - जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार मुनि पर रागस्नेह का रंग नहीं चढ़ता |
साधु
(३) जीवगति - परभव में जाने वाले जीव की गति (विग्रहगति) को जैसे कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार मुनि प्रतिबन्ध विहारी होकर विचरते हैं ।
(४) सुवर्ण — जैसे सुवर्ण पर काठ (जंग ) नहीं चढ़ता, उसी प्रकार साधु को पाप रूपी काठ नहीं लगता ।
(५) दर्पण - जैसे दर्पण में रूप दिखाई देता है, उसी प्रकार साधु ज्ञान से अपनी आत्मा के स्वरूप को देखता है ।
(६) कूर्म
- किसी वन में एक सरोवर था । उसमें बहुत कछुए रहते
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रात भर अपने पाँचों
छिपा कर स्थिर पड़े
थे । वे आहार की खोज में पानी से बाहर निकला करते थे । उस मौके पर वन में रहने वाले अनेक शृगाल उन्हें खाने के लिए आ जाते थे । श्रतएव जो कछुए समझदार होते वे शृगाल को देखते ही, sita (चारों पैरों और मस्तक को ) ढाल के नीचे रहते थे । जब सूर्योदय होता और शृगाल चले जाते तब वे कछुए अपने ठिकाने जाते और सुखपूर्वक रहते थे । पर कुछ कछुए ऐसे भी थे जो लगातार स्थिर नहीं रह सकते थे । 'भृगाल अभी गये हैं या नहीं गये' यह देखने के लिए वे अपना मस्तक बाहर की ओर निकालते थे कि उसी समय छिप कर बैठे हुए शृगाल उन पर झपटते और उन्हें मार कर खा जाते थे । साधु उन स्थिरता वाले कूर्मों की तरह पाँचों इन्द्रियों को, ज्ञान एवं संयम की ढाल के नीचे जीवन पर्यन्त दबा रखते हैं भोगोपभोग रूपी शृगालों के शिकार नहीं होते । आयु पूर्ण करके मोक्ष रूपी सरोवर में श्रवगाहन करके सुख के पात्र बनते हैं ।
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वे स्त्री, आहार आदि
अन्त में वे शांतिपूर्वक
(७) पद्म – जैसे पद्म-कमल जल में उत्पन्न होता है
और जल में ही वृद्धि को प्राप्त होता है, फिर भी जल से अलिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता — सांसारिक कामभोगों से सर्वथा विरत रहता है ।