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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
को क्षण मात्र में नष्ट कर देता है, उसी प्रकार साधु अनादि काल के मिथ्यात्व को नष्ट कर देता है। (४) जैसे सूर्य तेज प्रताप से दीपता है, उसी प्रकार साधु तप के तेज से दीप्त होता है। (५) जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर ग्रहों, नक्षत्रों और तारागण का प्रकाश फीका पड़ जाता है, उसी प्रकार साधु के आगमन से मिथ्यात्वियों और पाखंडियों का तेज मंद हो जाता है । (६) जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अग्नि का तेज फीका पड़ जाता है, उसी प्रकार साधु का ज्ञान रूप प्रकाश क्रोध रूप अग्नि को मंद बना देता है। (७) जैसे सूर्य अपनी हजार किरणों से शोभित होता है, उसी प्रकार साधु ज्ञानादि सहस्रों गुणों से तथा चार तीर्थ के परिवार से शोभित होता है।
(१२) साधु पवन के समान होता है। (१) जैसे पवन सर्वत्र गमन करता है, उसी प्रकार साधु सर्वत्र स्वेच्छा अनुसार विचरता है । (२) जैसे पवन अप्रतिबंध विहारी है, उसी प्रकार साधु, गृहस्थ आदि के प्रतिबंध से रहित होकर विचरता है। (३) जैसे पवन हलका होता है, उसी प्रकार साधु द्रव्य से और भाव से (चार कषाय पतले पड़ने से) हल्का होता है । (४) जैसे पवन चलते-चलते कहीं का कहीं पहुँच जाता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक देशों में विहार करता है । (५) जैसे पवन सुगंध और दुर्गध का प्रसार करता है, उसी प्रकार साधु धर्म-अधर्म तथा पुण्य-पाप आदि का स्वरूप प्रकट करता है। (६) जैसे पवन किसी के रोके रुकता नहीं है उसी प्रकार साधु मर्यादा के उपरान्त किसी के रोके नहीं रुकता । (७) जैसे वायु उष्णता को मिटाता है, उसी प्रकार साधु संवेग, वैराग्य और सद्बोध रूपी पवन से प्राधि, व्याधि और उपाधि रूप उष्णता का निवारण करके शान्ति का प्रसार करता है।
साधु की अन्य ३२ उपमाएँ
(१) कांस्यपात्र-जैसे कांसे की कटोरी पानी के द्वारा भेदी नहीं पा सकती, उसी प्रकार मुनि मोह-माया से नहीं भेदा जा सकता।