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® जैन-तत्त्व प्रकाश
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(६) जैसे भ्रमर का प्रेम केतकी (केवड़ा) के फूल पर अधिक होता है, उसी प्रकार साधु का चारित्रधर्म पर अधिक प्रेम होता है । (७) जैसे भ्रमर के लिए बाग-बगीचे नहीं बनाये जाते, उसी प्रकार जो आहार गृहस्थ ने साधु के निमित्त न बनाया हो वही आहार साधु के काम आता है।
(E) मृग-(१) जैसे मृग सिंह से डरता है, उसी प्रकार साधु हिंसा आदि पापों से डरता है । [२] जिस घास के ऊपर से सिंह निकलता है, उस घास को मृग नहीं खाता, उसी प्रकार जो आहार दूषित होता है, उसे साधु कभी नहीं लेता है । [३] जैसे मृग, सिंह के भय से एक स्थान पर नहीं रहता, उसी प्रकार साधु प्रतिबंध से डरता है और शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन करके एक स्थान पर निवास नहीं करता। [४] मृग रोग हो जाने पर भी
औषध का सेवन नहीं करता उसी प्रकार साधु पापकारी औषध का सेवन नहीं करता। [५] जैसे रोग आदि विशेष कारण से मृग एक स्थान पर रहता है, उसी प्रकार साधु रोग, वृद्धावस्था आदि विशेष कारण उपस्थित होने पर एक स्थान पर रहता है। [६] जैसे मृग रुगणता आदि अवस्थाओं में स्वजनों की सहायता की इच्छा नहीं करता, उसी प्रकार साधु भी रोग, परीषह या उपसर्ग आने पर गृहस्थों की अथवा स्वजनों की शरण की अपेक्षा नहीं करता। [७] जैसे मृग निरोग होते ही वह स्थान छोड़ देता है, उसी प्रकार साधु भी कारणमुक्त होते ही ग्रामानुग्राम विहार करता है।
[१] धरिणी के समान साधु होते हैं। [१] जैसे पृथ्वी समभाव से गर्मी-सर्दी, छेदन भेदन आदि दुःखों को सहन करती है, उसी प्रकार साधु परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करता है । [२] जैसे पृथ्वी धनधान्य से परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार साधु भी संवेग, वैराग्य शम, दम श्रादि सद्गुणों से परिपूर्ण होता है। [३] जैसे पृथ्वी समस्त बीजों की उत्पत्ति का कारण है, उसी प्रकार साधु सर्वसुखदाता और धर्म-बीज की उत्पत्ति का कारण है। [४] जैसे पृथ्वी अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करती, उमी प्रकार साधु ममत्वभाव से अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करता। [५] जैसे पृथ्वी का कोई छेदन-भेदन करता है तो भी वह किसी से परियाद नहीं करती, उसी प्रकार साधु को अगर कोई मारे, पीटे, उसका