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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
मिथ्यात्व रूपी अन्धकार का नाश करके धर्म का उद्योत करता है । [५] जैसे अग्निसुवर्ण, चांदी आदि धातुओं को शोध कर निर्मल बना देती है, उसी प्रकार साधु भव्य जीवों को व्याख्यान - वाणी द्वारा मिथ्यात्व के मल से रहित बनाते हैं । [६] जैसे अग्नि धातु और मैल को अलग-अलग कर देती है, उसी प्रकार साधु आत्मा और कर्म को अलग-अलग कर देते हैं । [७] जैसे मिट्टी के कच्चे बर्तन को पका कर पक्का करती है, उसी प्रकार साधु अपने शिष्यों और श्रावकों को उपदेश देकर पक्का - -धर्म में दृढ़ बनाता है।
(४) सागर - [१] साधु समुद्र की तरह सदा गंभीर रहे । [२] जैसे समुद्र मोती, मूँगा आदि रत्नों की खान है, उसी प्रकार साधु गुणरत्नों की खान है। [३] जैसे समुद्र मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार श्रमण जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा की मर्यादा को भङ्ग नहीं करता । [४] जैसे समुद्र में समस्त नदियों का संगम होता है, उसी प्रकार साधु में औत्पत्ति की आदि बुद्धियों का संगम होता है। [५] जैसे समुद्र मगरमच्छ आदि से - क्षुब्ध नहीं होता, उसी प्रकार साधु पाखण्डियों से तथा परिग्रह से क्षोभ को प्राप्त नहीं होता । [६] जैसे समुद्र कभी छलकता नहीं है, उसी प्रकार साधु कभी नहीं छलकता । [७] समुद्र के जल के समान साधु का अन्तःकरण निर्मल रहता है।
सदा
(५) नमस्थल - (१) साधु का मन आकाश की तरह निर्मल होता है । (२) जैसे आकाश को किसी के आधार की आवश्यकता नहीं है, उसी प्रकार साधु को गृहस्थ आदि के आश्रय की आवश्यकता नहीं रहती । ( ३ ) जैसे समस्त पदार्थ आकाश में समा जाते हैं, इसलिए वह सभी का आधार है। इसी प्रकार साधु ज्ञान आदि सभी गुणों का पात्र है । (४) जैसे आकाश पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता, उसी प्रकार साधु निन्दा एव अपमान से उदास नहीं होता । (५) जैसे आकाश वर्षा आदि के कारण प्रफुल्लित नहीं होता, उसी प्रकार साधु सत्कार वंदना तथा सन्मान पाकर प्रसन्न नहीं होता, (६) जैसे आकाश का शस्त्रों से छेदन-भेदन नहीं हो सकता उसी प्रकार साधु के चारित्र आदि गुणों का कोई नाश नहीं कर सकता । (७) जैसे आकाश अनन्त है, उसी प्रकार साधु के गुण अनन्त हैं ।