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साधु
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स्वाद
बिल में सीधा प्रवेश करता है उसी प्रकार साधु आहार के ग्रास को, के लिए इधर-उधर न फिराता हुआ सीधा गले में उतारता है । [५] जैसे साँप केंचुली त्याग कर तुरन्त चल देता है, फिर उस तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता, उसी प्रकार साधु संसार त्याग करके लेश मात्र भी संसार
इच्छा नहीं करता । [६] जैसे साँप कंटक, कंकर आदि से डर कर सावधानी से चलता है, उसी प्रकार साधु भी हिंसा आदि से डर कर यतनापूर्वक चलता है। [७] जैसे साँप से सब डरते हैं उसी प्रकार लब्धिधारी साधु से राजा, देव, इन्द्र आदि भी डरते हैं ।
(२) गिरि – [१] जैसे पर्वत पर नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं श्रौषधियाँ होती हैं, उसी प्रकार साधु भी अक्षीण आदि अनेक लब्धियों के धारक होते हैं । [२] जैसे पर्वत को वायु चलायमान नहीं करती, उसी प्रकार साधु को उपसर्ग और परीषह विचलित नहीं कर सकते । [३] जैसे पर्वत प्राणियों का आधारभूत है, घास, मिट्टी, फल आदि के द्वारा आजीविका का साधन बनता है, उसी प्रकार साधु छह काय के जीवों के लिए
धारभूत है । [४] जैसे पर्वत में से नदियाँ वगैरह निकलती हैं, उसी प्रकार साधु से ज्ञान आदि अनेक गुणों का विकास होता है । [५] जैसे मेरुपर्वत सब पर्वतों में ऊँचा है, उसी प्रकार साधु का भेष सब भेषों में उत्तम और मान्य है । [६] जैसे कितने ही पर्वत रत्नमय हैं, उसी प्रकार साधु रत्नत्रयमय (सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र से युक्त ) है । [७] जैसे पर्वत मेखला से शोभायमान होता है, उसी प्रकार साधु, शिष्यों तथा श्रावकों से शोभित हैं ।
(३) ज्वलन - [१] जैसे अनि ईंधन से कभी तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार साधु ज्ञान आदि गुणों का ग्रहण करते-करते कभी तृप्त नहीं होता । [२] जैसे अग्नि अपने तेज से देदीप्यमान होती है, उसी प्रकार साधु, तप, संयम आदि ऋद्धि से दीप्त होते हैं । [३] जैसे अग्नि कचरे को भस्म कर देती है, उसी प्रकार साधु कर्म रूपी कचरे को तप के द्वारा जला देता है । [४] जैसे अग्नि अन्धकार का नाश करके प्रकाश करती है, उसी प्रकार साधु