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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
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औषध और संयम रूप पथ्य यद्यपि दुःखप्रद मालूम पड़ता है फिर भी उसका परिणाम तो अत्यन्त सुखदायी होता है ।
खणमित्तदुक्खा बहुकालसुक्खा । अर्थात्-थोड़ी देर दुःख सहन करके कर्मक्षय होने पर मोक्ष का अक्षय सुख देने वाला तप दुःखरूप नहीं वरन् सुखरूप ही है। दुःख सहन किये बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती है। कोई भी सुख, दुःख सहन किये बिना नहीं प्राप्त हो सकता।
(३) कोई-कोई कहते हैं :-पापकर्ता तो शरीर है, फिर आत्मा को क्यों सताते हो ? ऐसा कहने वालों से पूछना चाहिए कि छाछ-मिले घृत को शुद्ध करने के लिए बेचारे बर्तन को क्यों सताते हो ? भाई, जैसे वर्तन को तपाये बिना घी शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार शरीर बिना तपाये आत्मा की शुद्धि नहीं होती। अतएव मोक्षार्थी महात्माओं के लिए तप करना परमावश्यक है। तपस्वी पुरुष विचार करते हैं कि---जगत् के समस्त खाद्य पदार्थों को अनन्त बार खा चुके, पेय पदार्थों का अनन्त बार पान कर चुके, अधिक क्या, स्वयंभूरमण समुद्र से भी अनन्तगुणा अधिक माता का दूध पी चुके और अनन्त सुमेरु पर्वतों के बराबर मिश्री का भक्षण किया; फिर भी तृप्ति नहीं हुई ! तो इन तुच्छ पदार्थों के भोग से क्या तृप्ति होने वाली है ! ऐसा जानकर पुद्गलों की ममता का त्याग करके जो तपश्चर्या करते हैं, वे इस लोक में अनेक लब्धियाँ प्राप्त करते हैं और देवेन्द्र आदि के द्वारा भी पूजनीय होते हैं और आगे सिद्ध पदवी प्राप्त करते हैं। तप कर्म-वन को भस्म करने के लिए दावानल के समान है। तप काम-शत्रु का विध्वंस करने में वासुदेव के समान है। तृष्णा रूपी बेल को छेदने में हथियार के समान है। तप के द्वारा आत्मा निविड कर्मबंधन से छुटकारा पाकर अक्षय सुख प्राप्त करता है।
(8) त्यागधर्म-एक प्रकार से त्यागधर्म सब धर्मों में प्रधान है । त्याग के बिना कोई भी धर्म नहीं टिक सकता। अतएव त्याग धर्म की नींव है । त्याग का अर्थ है-ममत्व भाष का त्याग करना । ममत्व का सर्वप्रथम प्राधार