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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
सामना
(३) शीतपरीषह-ठंड से बचने के लिए सिगड़ी जलाना, मर्यादा से अधिक वस्त्र रखना और मर्यादा के भीतर भी सदोष एवं अकल्पनीय वस्त्र ग्रहण करना आदि वस्त्रविरोधी बातों की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए।
(४) उष्णपरीषह--उष्णता-गर्मी से आकुल-व्याकुल होने पर भी स्नान आदि न करे।
(५) दंशमशकपरीषह-~-डांस, मच्छर, खटमल आदि जन्तु साधु को कष्ट पहुँचावें तो उसे समभाव से सहन करना चाहिए ।
(६) अचेलपरीषह-वस्त्र फट गये हों या अत्यन्त जीर्ण हो गये हों चोर उठा ले गया हो तो भी दीनता प्रकट करके वस्त्रों की याचना न करे । तथा जिस प्रकार दोष लगे उस प्रकार वस्त्रों का उपयोग करने की इच्छा न करे।
(७) अरतिपरीपह--अन्न, वस्त्र आदि का योग न मिले तो भी मन में परति (ग्लानि या चिन्ता) न करे । नरगति और तिर्यञ्च गति में परवश होकर जो दुःख सहन किये हैं, उनका स्मरण करके अरतिपरीषह को समभाव से सहन करे।
(८) स्त्रीपरीषह-कोई पापिनी स्त्री विषयभोग भोगने के लिए कहे या हाव-भाव कटाक्ष आदि करके मन को आकर्षित करने की कलाएँ दिखलावे तो भी अपने मन को मजबूत रक्खे । श्रीदशवकालिकास्त्र में कहा
समाइ पेहाइ परिव्वयंतो,
सिया मणो निस्सरइ बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं पि तीसे,
इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।। अर्थात्-स्त्री वगैरह को देखकर कदाचित् साधु का मन चंचल हो जाय-संयम से दूर हटने लगे तो साधु को उस समय विचार करना चाहिए कि यह मेरी नहीं है और मैं इसका नहीं हूँ। इस प्रकार विचार करके उस पर से अपना राग हटा ले । फिर भी मन में अगर शान्ति प्राप्त न हो तो