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* जैन-तत्व प्रकाश
लाते हैं। बकुश भी दो प्रकार के होते हैं:-[१] उपकरण बकुश और [२] शरीरबकुश । मर्यादा से अधिक वस्त्र-पात्र रखने वाले और उन्हें क्षार आदि से धोने वाले उपकरण बकुश कहलाते हैं। अपने हाथ-पैर धोने वाले, शरीर की विभूषा करने वाले शरीरवकुश कहलाते हैं। इन निर्ग्रन्थों को जान में तथा अनजान में, गुप्त तथा प्रकट रूप से, सूक्ष्म तथा बादर दोष लगते हैं। इनका चारित्र सातिचार और निरतिचार दोनों प्रकार का होता है-मिलाजुला-सा रहता है। किन्तु यह कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत बने रहते हैं।
[३] कुशीलः-गोधूम [गेहूँ] और शालि की ऊंबियों के उस ढेर में से घास अलग कर दिया-मिट्टी आदि अलग कर दी, खलिहान में बैलों के पैरों से कुचलवा कर [दांय करके] दाने अलग कर लिये, तो उस समय दाने और कचरा लगभग समान होता है, उसी प्रकार कुशील निग्रन्थ प्रायः गुण-अवगुण की समानता के धारक होते हैं। यह भी दो प्रकार के होते हैं:-[१] जो निर्दोष संयम का पालन करते हैं, यथाशक्ति जप-तप आदि भी करते है, किन्तु कभी इन्द्रियों के अधीन होकर सर्वज्ञ की आज्ञा से न्यूनाधिक प्रवृत्ति करते हैं और जिनके ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अतिचार लग जाते हैं और उन अतिचारों का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि भी कर लेते हैं, इस तरह जो गड़बड़ में पड़े रहते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील कहलाते हैं। [२] जो मुनि संज्वलन कषाय का उदय होने से कडक वचन श्रवण करके क्रोधित हो जाते हैं, क्रिया में और वादियों का पराजय करने में माया का भी सेवन कर लेते हैं और जिनमें शिष्य तथा सूत्रादि विषयक लोभ भी विद्यमान रहता है, दोष लगाने के परिणाम जिनमें विद्यमान रहते हैं किन्तु सहज में जो दोष नहीं लगाते और कषायोदय के लिए जो पश्चात्ताप करके कषाय को उपशांत कर डालते हैं, ऐसे संज्वलन कषाय के उदय वाले मुनि कषायकुशील कहलाते हैं।
(४) जैसे उस धान्य की राशि को हवा में उफानने से उसमें का कचरा-मिट्टी आदि अलग हो जाता है, अत्यल्प कंकर रहजाते हैं, इसी प्रकार जिनकी पूर्ण आत्मशुद्धि में किंचिन्मात्र त्रुटि रह जाती है, वे साधु निम्रन्थ