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* साधु
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देकर ज्ञान की वृद्धि करे । साधु सम्यग्दर्शन से सम्पन्न हो अर्थात देव आदि का भयानक उपसर्ग आने पर भी सम्यक्त्व से चलित न हो और शंका, कांचा आदि दोषों को टालकर निर्मल सम्यक्त्व का पालन करे । साधु चारित्र सम्पन्न भी हो अर्थात् सामायिक, छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र में से यथासंभव चारित्रों को धारण करे । (इस काल में पहले के दो चारित्र ही पाले जा सकते हैं ।) चारित्र का वर्णन तीसरे प्रकरण में, विनय तप के सात भेदों में विस्तृत रूप से आ चुका है । (२४) खंती - क्षमायुक्त हो । (२५) संवेग - सदा वैराग्यवान् हो । संसार शारीरिक और मानसिक वेदनाओं से पीड़ित है । इन वेदनाओं को देखकर और संसार के समस्त संयोगों को इन्द्रजाल के समान कल्पित और स्वप्न के समान क्षणिक समझ कर संसार से भयभीत रहना संवेग कहलाता है । (२६) वेयणसमहिश्रासगिया - क्षुधा तृषा आदि २२ परीषह उत्पन्न हों तो समभाव से उन्हें सहन करना (२७) मरणंतियस महियासणिया अर्थात् मारणान्तिक कष्ट आने पर भी और मृत्यु के अवसर पर तनिक भी भयभीत न होना । किन्तु समाधिमरण से आयु पूर्ण करना । यह साधु के २७ गुण हैं ।
बाईस परीषह - विजय
(१) क्षुधापरीषह - मुनिराज को भूख लगे तब शास्त्राज्ञा के अनुसार, भिक्षा माँगकर अपनी क्षुधा को शांत करें और शरीर का निर्वाह करें। कदाचित् शास्त्र अनुसार आहार की प्राप्ति न हो तो मरणांत कष्ट सहने पर भी शास्त्राज्ञा के विरुद्ध सचित अन्न, वनस्पति आदि का सेवन न करे । वचन से कहकर भोजन बनवाने की इच्छा तक न करे । सदैव उदयभाव में रहने वाले क्षुधावेदनीय कर्म को जीतना बड़ा दुर्लभ है ।
(२) पिपासापरीषह - -प्यास की वेदना होने पर अचित्त जल या धोवण यादि से प्यास शान्त करनी चाहिए। श्रचिच जल की प्राप्ति न हो तो सचित जल की कभी इच्छा नहीं करना चाहिए ।