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* जैन-तत्त्व प्रकाश
इन सब कारणों से चौथे आरे में साधु भिक्षा लेने के लिए तीसरे पहर में जाया करते थे । शास्त्र में कहा है-'काले कालं सपायरे अर्थात् जिस जगह भिक्षा के लिए जो उचित हो, वहाँ उसी समय भिक्षा के लिए जाना चाहिए। भिक्षा के काल का विचार न करके पहले या बाद में जाने से भिक्षा के लिए बहुत फिरना पड़ता है, इच्छित आहार नहीं मिलता, शरीर को किलामना होती है। लोग भी सोचते हैं कि समय-असमय का विचार न करके यह साधु क्यों भटकते फिरते है ! इससे स्वाध्याय और ध्यान का समय भी टल जाने की संभावना रहती है। इत्यादि बातों पर विचार करके साधु को समुचित समय पर ही भिक्षा के लिए जाना चाहिए ।) शास्त्रोक्त विधि से आहार करे। इसके अनन्तर फिर ध्यान और शास्त्रचिन्तन करे । दिन के चौथे पहर में फिर प्रतिलेखना करे स्वाध्याय करे और असज्झाय के समय-संध्याकाल मेंप्रतिक्रमण करे* | अस्वाध्यायकाल पूर्ण हो चुकने पर रात्रि के पहले पहर में स्वाध्याय करे, दूसरे पहर में ध्यान और शास्त्र चिन्तन करे और तीसरे पहर के अन्त में निद्रा का त्याग करे । साधु की रात-दिन की चर्या श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में कही है। इसके अतिरिक्त क्रिया के छोटे-मोटे बहुत-से भेद हैं। उन्हें गुरु महाराज से समझकर धारण करना चाहिए। (२०) जोगसच्चे अर्थात् मन वचन और काय के योगों की सरलता और सत्यता रक्खे । योगाभ्यास, आत्मसाधन, शम, दम, उपशम आदि की प्रतिदिन वृद्धि करे। (२१) सम्पन्नतिउ अर्थात् साधु तीन वस्तुओं से सम्पन्न हो । यथाज्ञानसम्पन्न हो अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अंग, उपांग पूर्व आदि जिस काल में जितना श्रुत विद्यमान हो उसका उत्साह के साथ अध्ययन करे । वाचना, पृच्छना, परिवर्तना आदि करके ज्ञान को दृढ़ करे और यथायोग्य दूसरों को ज्ञान आती देख, आहार के याचक भिक्षुकों को परिभ्रमण करते देख, इत्यादि चिह्नों से समझे कि अब भिक्षा का पर्याप्त काल हो गया है, तब साधु भिक्षा लेने के लिए जावे, जो भिक्षा के काल में भिक्षार्थ न जाते. जल्दी या देर से जावेगा तो फिरना बहुत पड़ेगा, इच्छित भाहार व्यंजन नहीं मिलेगा, शरीर को दुःख होगा, तथा बे वक्त साधु क्यों फिरता है यों लोग निन्दा करेंगे और स्वाध्याय ध्यानादि में अन्तराय पड़ेगी। ऐसी दशवकालिक शास्त्र की भाज्ञा को जान जिस ग्राम में जिस वक्त भिक्षा का काल हो उस ही वक्त गोचरी जावे।
पतिकमा पाने के लिए किसी भी प्रकार की साहनही मानी जाती है।