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* साधु *
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(१८) अष्टापद-अष्टापा, जुत्रा आदि खेलना । (१६) नालिक-चौपड़, सतरंज आदि खेलना। (२०) छत्र-सिर पर छतरी या छत्र धारण करना ।
(२१) चिकित्सा-विना कारण बलवृद्धि आदि के लिए औषध लेना या वैद्य की तरह दूसरों की चिकित्सा करना ।
(२२) उपानह-जूते, खड़ाऊँ, मोजे आदि पैरों में पहनना ।
(२३) जोतिःप्रारम्भ-दीपक, चून्हा आदि जलाकर या अन्य किसी प्रकार से अग्नि का आरम्भ करना ।
(२४) शय्यातरपिण्ड-जिसकी आज्ञा लेकर मकान में उतरे उसके घर का आहार-पानी आदि ग्रहण करना । ___(२५) श्रासंदी-खाट, पलंग, कुर्सी आदि किसी भी बुने हुए प्रासन पर बैठना।
(२६) गृहान्तरनिषद्या--रोग, तपश्चर्या और वृद्धावस्था रूप कारणों के बिना ही गृहस्थ के घर में बैठना । _ (२७) गात्रमर्दन–शरीर पर पीठी आदि लगाना।
(२८) गृहिवैयावृत्य-स्वयं गृहस्थ की सेवा करना तथा गृहस्थ से सेवा कराना।
(२६) जात्याजीविका-जातीय संबंध जोड़कर, सगा-संबंधी बनकर आहार आदि प्राप्त करना।
(३०) तप्तनिवृत्त-जिस बर्तन में पानी गर्म किया जाय वह ऊपर, नीचे और बीच में, इस तरह तीनों स्थानों से गर्म न हुआ हो, फिर भी उस पानी को ग्रहण कर लेना ।
(३१) आतुर-स्मरण-रोगों से या अन्य दुःखों से घबराकर, परीपह और उपसर्ग आने पर दुःखी होकर गृहस्थावस्था का या कुटुम्बीजनों का स्मरण करना।
(३२) मूलक (३३) अदरख (३४) इक्षुखण्ड* (साठे के टुकड़े) (३५)
बिना गाँउ का अचित्त हुभा टुकड़ा लेने में यह दोष नहीं है ।