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* साधु
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दोषों से साधु को सदैव बचना चाहिए । यह दोष निम्न प्रकार हैं:
(१) शीघ्रता से गमन करना ।
(२) प्रकाशमय स्थान में दृष्टि से देखे बिना और प्रकाशहीन स्थान में रजोहरण से पूजे बिना चलना।
(३) देखे और प्रमार्जन करे दूसरे स्थान को तथा भाएडोपकरण रक्खे या गमन करे, बैठे या शयन करे अन्य स्थान पर ।
(४) शयन करने के पाट या बैठने के छोटे पाट आवश्यकता से अधिक रखना।
(५) आचार्य, उपाध्याय, वयोवृद्ध, गुरु आदि ज्येष्ठ जनों के लिए पराभवकारी (शिष्टता के प्रतिकूल) वचनों का प्रयोग करना ।
(६) वयःस्थविर, दीक्षास्थविर या सूत्रस्थविर आदि ज्येष्ठ मुनियों की मृत्यु की इच्छा करना ।
(७) अन्य प्राणियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के, भृतवनस्पति के, जीव-पंचेन्द्रिय के तथा सत्त्व अर्थात् पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय के मरण की इच्छा करना ।
(८) सदैव सन्तापयुक्त रहना तथा क्षण-क्षण में क्रोध करना। (8) पीठ पीछे किसी की निन्दा करना-अवर्णवाद बोलना ।
(१०) अमुक काम करूँगा, वहाँ जाऊँगा, आऊँगा इत्यादि निश्चय की भाषा बारम्बार बोलना ।।
(११) नया झगड़ा खड़ा करना । (१२) खमत-खामणा करने पर भी मिटे हुए झगड़े को फिर छेड़ना।
(१३) कालिक और उत्कालिक सूत्रों के पढ़ने के समय का खयाल न रखना, अकाल में तथा ३४ असल्झाय में सज्झाय करना।
(१४) सचित्त रज-रास्ते की धूल से भरे पाँवों का रजोहरण आदि से प्रमार्जन किये बिना ही आसन पर बैठना तथा गृहस्थ के हाथ और वर्तन सचित्त पानी से युक्त हों या सचित्त रज से लिप्त हों तो भी उनसे आहार प्रादि ले लेना।