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जैन-तत्र प्रकाश
मन को वश में रखता है, मुक्तिगमन के योग्य गुणों से युक्त है, शरीर ममता का त्यागी है, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहन करता है, अध्यात्मयोग से शुद्ध चारित्र वाला है, उस साधु को भिक्षु कहना चाहिए ।
सूत्र - एत्थ वि निग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते, सुमिते सुसामाइए श्रयवायपत्ते विऊ दुहश्रो वि सोयपलिच्छिन्ने णो पूया - सकारलाभट्ठी धम्मट्टी धम्मविऊ सियागपडिवन्ने समियं चरे दंते दविए ategory निथे बच्चे !
अर्थ - भिक्षु में निर्ग्रन्थ के गुण भी होने चाहिए । साथ ही जो रागद्वेष से रहित होकर रहता है, श्रात्मा के एकत्व को जानता है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है, जिसने श्रस्रवद्वारों को रोक दिया है, जो बिना प्रयोजन अपने शरीर की क्रिया नहीं करता, समितियों से युक्त है, शत्रु-मित्र पर समभाव रखता है, जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानता है, जिसने संसार के स्रोत को छेद डाला है, जो पूजा सत्कार और लाभ की इच्छा नहीं करता, जो धर्म का अर्थी है, धर्मज्ञ है, जितेन्द्रिय, मुक्ति- योग्य और शरीरममता का त्यागी है, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए ।
साधु के सत्ताईस गुण
पंच महव्वयजुत्तो, पंचेंदियसंवरणो ।
चविसायमुको, तच समाधारणीया ॥ १ ॥ तिसच्चसम्पन्न तिश्रो खंतिसंवेगरो ।
वेयणमच्चु भयगयं, साहु गुण सत्तावीसं ॥ २ ॥
अर्थ - (१ - २) पच्चीस भावनाओं के साथ पाँच महाव्रतों का पालन करना (६-१०) पाँच इन्द्रियों का संवर करना - विषयों से निवृत्ति करना (११-१४) चार कषायों से निवृत्त होना; इन चौदह गुणों का विस्तृत कथन आचार्य के तीसरे प्रकरण में किया जा चुका है । (१५) मनसमाधारणीया