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* साधु *
श्रयावयाही वय सोगमल्लं,
कामे कमाही कमियंखु दुक्खं । विदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥
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अर्थात – मुनि ! आतापना ले, शरीर की सुकुमारता का त्याग कर । कामनाओं पर विजय प्राप्त कर । ऐसा करने से तू दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकेगा । और द्वेष को छेद तथा राग को हटा दे। इससे आत्मा को सुख की प्राप्ति होगी ।
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(६) चर्यापरीषह - एक जगह स्थायी रूप से निवास करने पर प्रेम के बंधन में पड़ जाने की संभावना रहती है । श्रतएव साधु को ग्रामानुग्राम विचरना चाहिए । आठ महीने में आठ और चौमासा संबंधी एक इस प्रकार नौकल्पी विहार तो कम से कम करना ही चाहिए। कोई वृद्ध, रोगी या तपस्वी हो तो उसे तथा उसकी सेवा करने वालों को और ज्ञान का अभ्यास करने वालों को रहने में कोई हानि नहीं है ।
(१०) निषद्यापरीषह - चलते-चलते साधु को विश्राम लेने के लिए बैठना पड़े और बैठने की जगह ऊबड़-खाबड़ या कँकरीली मिले तो भी समभाव धारण करे ।
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(११) शय्यापरीषह - किसी जगह एक रात रहना पड़े या अधिक समय रहना पड़े और वहाँ रुचि के अनुकूल शय्या - स्थानक आदि न मिले वरन् खण्डहर सरीखा, सर्दी-गर्मी का उपद्रव उत्पन्न करने वाला मिले तो ऐसे मकान आदि को पाकर मन में तनिक भी उद्वेग न होने दे ।
(१२) आक्रोशपरीषह - ग्राम में रहे हुए साधु को क्रिया या वेष आदि देखकर कोई ईर्षा या परधर्म का श्राग्रही मनुष्य कठोर वचन कहे, निन्दा करे, झूठा आरोप लगावे, ठग, पाखण्डी आदि शब्दों का प्रयोग करे तो समभाव धारण करके सहन करना ।
(१३) वधपरीषह — कोई मनुष्य क्रोध में आकर मारे तो भी मुनि शान्ति से उसे सहन करे । मन में भी मारने वाले के प्रति रोष न आने दे ।