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ॐ जैन तत्व प्रकाश
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श्री आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है-कितनेक अज्ञानी जीव शरीर की रक्षा करके श्रायु का निर्वाह करने के लिए, उत्सव आदि प्रसंगों पर यश प्राप्त करने के लिए, पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए मान से प्रेरित होकर, जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए और शारीरिक या मानसिक दुःख से छूटने के लिए स्वयं हिंसा करते हैं। यह हिंसा करते समय तो आनन्ददायक प्रतीत होती है किन्तु आगे दुःखप्रद हो जाती है । संसार सम्बन्धी कार्यों के लिए की हुई हिंसा अहित करने वाली है और धर्मार्थ की जाने वाली हिंसा अबोधि ( सम्यक्त्व के नाश) का कारण है । ऐसा जान कर यमी पुरुष किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा नहीं करते हैं ।
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(१०) अजीव कायसंयमः -संयमी साधु वस्त्र, पात्र, पुस्तक, रजोहरण, पाट, वाजौठ आदि प्रत्येक वस्तु को यतनापूर्वक ही ग्रहण करे, यतनापूर्वक ही उठावे और यतनापूर्वक ही काम में लावे । मुद्दत पूरी होने से पहले उसे बेकाम न करे। क्योंकि बिना आरम्भ के कोई वस्तु बनती नहीं है और दातार को बिना मूल्य चुकायें मिलती नहीं है। उसने अपनी प्राण-प्यारी वस्तु साधु को दे दी है, सो केवल धर्मबुद्धि से ही दी है। जो साधु दूसरी नवीन वस्तु के लालच से या विना कारण ही पास की वस्तु को बिना मुद्दत पूरी हुए फैंक देता है या नष्ट कर देता है, वह दोष का पात्र होता है । इस प्रकार अजीव वस्तु की रक्षा करना और उसे यतनापूर्वक काम में लाना जोवकायसंयम है ।
(११) पेहा (प्रेक्षा) संयमः - किसी भी वस्तु को प्रथम अच्छी तरह देखे बिना, परीक्षा किये बिना उपयोग में नहीं लाना चाहिए । इस दृष्टि से रात्रि में चारों ही प्रकार के आहार को न अपने पास रक्खे और न भोगे । इससे प्राणियों की भी रक्षा होती है और विषैले प्राणियों से अपनी भी रक्षा होती है ।
(१२) उपेहा (उपेक्षा) संयम: - उपदेश द्वारा मिथ्यादृष्टियों को सम्यग्दृष्टि बनाना तथा मार्गानुसारी को श्रावक अथवा साधु बनाना, जो धर्म से या संयम से चलायमान हो उसे स्थिर करना, जो धर्मभ्रष्ट हो उसका