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परिचय - संसर्ग न करना उपेहासंयम है । क्योंकि आगम में कहा है – 'सद्भा परम दुलहा' अर्थात् श्रद्धा की प्राप्ति होना बहुत कठिन है । इसी प्रकार गुरु, ज्ञानी, रोगी, तपस्वी तथा नवदीक्षित मुनि की यथायोग्य सेवा-भक्ति भी करनी चाहिए ।
* उपाध्याय
(१३) प्रमार्जना संयमः - अप्रकाशित स्थान में तथा रात्रि के समय रजोहरण से भूमि को प्रमार्जन करके प्रयोजन होने पर आवागमन करे । वस्त्र, पात्र या शरीर पर किसी जीव के होने की आशंका हो तो पूँजी से प्रमार्जन करके उठाए ।
(१४) परिठावणिया संयमः - मल, मूत्र, श्लेष्म, नरव, केश, अशुद्ध आहार, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को इस प्रकार परिठावे ( डाले) जिससे हरितकाय, दाने और चीटी आदि जीवों की हिंसा न हो
(१५-१७) मन-वचन-कायसंयमः - इन तीनों योगों को प्रशस्त एवं अशुभ विचार, उच्चार और आचार से बचाकर प्रशस्त और शुद्ध विचार, उच्चार और आचार में प्रवृत्त करना ।
सत्तरह प्रकार का संयम दूसरी तरह से भी गिना जाता है । वह इस प्रकार – पाँच आस्रवों का त्याग करना, पाँच इन्द्रियों का दमन करना, चार कषायों का निग्रह करना और तीन योगों को वश में करना ।
रत्नत्रय
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं । जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाय, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और संसार की कारणंभूत क्रियाओं का परित्याग करके आत्मस्वरूप में रमण करना सम्यक् चारित्र है । इन तीन रत्नों का आराधन, पालन और स्पर्शन करना मोक्ष का मार्ग है। इन तीनों का विस्तारपूर्वक कथन तीसरे प्रकरण में तीनों श्राचारों द्वारा किया जा चुका है।