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________________ [ २६७ परिचय - संसर्ग न करना उपेहासंयम है । क्योंकि आगम में कहा है – 'सद्भा परम दुलहा' अर्थात् श्रद्धा की प्राप्ति होना बहुत कठिन है । इसी प्रकार गुरु, ज्ञानी, रोगी, तपस्वी तथा नवदीक्षित मुनि की यथायोग्य सेवा-भक्ति भी करनी चाहिए । * उपाध्याय (१३) प्रमार्जना संयमः - अप्रकाशित स्थान में तथा रात्रि के समय रजोहरण से भूमि को प्रमार्जन करके प्रयोजन होने पर आवागमन करे । वस्त्र, पात्र या शरीर पर किसी जीव के होने की आशंका हो तो पूँजी से प्रमार्जन करके उठाए । (१४) परिठावणिया संयमः - मल, मूत्र, श्लेष्म, नरव, केश, अशुद्ध आहार, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को इस प्रकार परिठावे ( डाले) जिससे हरितकाय, दाने और चीटी आदि जीवों की हिंसा न हो (१५-१७) मन-वचन-कायसंयमः - इन तीनों योगों को प्रशस्त एवं अशुभ विचार, उच्चार और आचार से बचाकर प्रशस्त और शुद्ध विचार, उच्चार और आचार में प्रवृत्त करना । सत्तरह प्रकार का संयम दूसरी तरह से भी गिना जाता है । वह इस प्रकार – पाँच आस्रवों का त्याग करना, पाँच इन्द्रियों का दमन करना, चार कषायों का निग्रह करना और तीन योगों को वश में करना । रत्नत्रय सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं । जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाय, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और संसार की कारणंभूत क्रियाओं का परित्याग करके आत्मस्वरूप में रमण करना सम्यक् चारित्र है । इन तीन रत्नों का आराधन, पालन और स्पर्शन करना मोक्ष का मार्ग है। इन तीनों का विस्तारपूर्वक कथन तीसरे प्रकरण में तीनों श्राचारों द्वारा किया जा चुका है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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