________________
२६८]
जैन-तत्त्व प्रकाश
आठ प्रभावना
प्रभावना सम्यग्दर्शन का एक अंग है। जिनशासन की महिमा का विस्तार करना प्रभावना है। प्रभावना प्रधानतया आठ प्रकार से होती है। अतएव उसके आठ प्रकार हैं । वे इस प्रकार हैं:
(१) प्रवचनप्रभावना-सब प्रकार के जैनागमों का, जैनग्रन्थों का तथा पट्दर्शन के अनेक शास्त्रों का पठन, मनन, निदिध्यासन कर, उनके तात्पर्य अर्थ परमार्थ को संक्षिप्त शब्दों में ग्रहण करके कंठस्थ करना, बार-बार अनुप्रेक्षा के साथ आवृत्ति करना जिससे कि आवश्यकता के समय स्मरण हो जाय और जो जिस मत का अनुयायी हो उसे उसके मत के अनुसार उत्तर दिया जा सके और धर्म की प्रभावना की जा सके।
(२) धर्मकथाप्रभावना-धर्मोपदेश के द्वारा धर्म को दिपाना । श्रीस्थानांगसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध में चार प्रकार की धर्मकथा बतलाई है:-(१) आक्षेपिणी (२) विक्षेपिणी (३) संवेगिनी और (४) निर्वेगिनी ।।
(क) श्रोता के हृदय पर हूबहू चित्र-सा अंकित कर देना, अर्थात् किसी विषय का ऐसा सुन्दर वर्णन करना जिससे श्रोता का चित्त उसके रस में डूब जाय, सो आक्षेपिणी कथा है । इस कथा के चार भेद हैं-(१) पंचाचार का तथा साधु-श्रावक के आचार का उपदेश देना (२) व्यवहार में प्रवृत्ति करने की विधि तथा उपदेशक बनने की विधि तथा प्रायश्चित्त आदि
आदि आत्मशुद्धि करने की विधि प्रकाशित करना (३) अपने कौशल से श्रोता के मन में उत्पन्न हुए संशय को समझकर उसके पूछे बिना ही समाधान करना अथवा प्रश्न पूछने पर पूछने वाले को संक्षिप्त शब्दों में ऐसा समाधान करना जिससे उसके हृदय में बात उँस जाय । (४) परस्पर विरोधरहितस्थाद्वाद शैली से सातों नयों के पक्ष का समर्थन करते हुए, श्रोता की रुचि के अनुसार किसी भी मत के लिए अपवादजनक शब्दों का प्रयोग न करते हुए, अपने सिद्धान्त का प्रकाश करते हुए, अन्य के अनाचीर्ण को दिखलाते हुए सत्य पथ की उत्कृष्टता सिद्ध करना ।