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ॐ उपाध्याय
(५) तपःप्रभावना-यथाशक्ति दुष्कर तपस्या करना, जिसे देखकर लोगों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न हो। अन्यमतावलम्बियों की तपस्या तो नाम मात्र की है । वे एक उपवास में भी फलाहार खाते हैं, मिठाई खाते हैं और कहते हैं कि हम तपस्या-उपवास कर रहे हैं ! किन्तु जैनों की तपस्या दुष्कर होती है। उससे लोगों के चित्त प्रभावित होते हैं ।
(६) व्रतप्रभावना-घी, दूध, दही, आदि विगयों (विकृतियों) का त्याग, अल्प उपधि, मौन, कठिन अभिग्रह, कायोत्सर्ग, भर जवानी में इन्द्रिय निग्रह, दुष्कर क्रिया आदि का आचरण करके धर्म को दिपाना ।
(७) विद्याप्रभावना-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, परशरीरप्रवेशनी, गगनगामिनी आदि विद्याओं में तथा मंत्र शक्ति, अंजनसिद्धि, गुटिका, रससिद्धि आदि अनेक विद्याओं में प्रवीण हो, फिर भी इनका प्रयोग न करे। जिन धर्म की प्रभावना का कोई विशेष अवसर या पड़े तो लोगों में चमत्कार उपजावे और फिर प्रायश्चित्त कर ले।
(८) कविप्रभावना-अनेक प्रकार के छंद, कविता, ढाल, जोड़, स्तवन आदि उत्तम काव्य रच कर तथा काव्य के अनुभव द्वारा गूढ़ अर्थ के रस को समझ कर आत्म ज्ञान की शक्ति प्राप्त करना और जैनधर्म को दिपाना ।
उपर्युक्त आठ प्रभावनाओं में से यथाशक्ति किसी भी प्रभावना के द्वारा जैनधर्म की महिमा को बढ़ाना और फैलाना उचित है । अर्थात् लोगों का चित्त जैनधर्म की ओर आकर्षित करके उन्हें धर्मप्रेमी बनाना चाहिए । प्रभावना के द्वारा यदि चमत्कार उत्पन्न हो और उससे महिमा, प्रतिष्ठा हो तो उसका गर्व न करे । अभिमान करने से गुणों में मन्दता आ जाती है । जैसे दृष्टिदोष (नज़र) लगने से अच्छी वस्तु नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अमिमान करने से भी अच्छाई नष्ट हो जाने का भय बना रहता है। अतएव अनेक गुणों का सागर होकर तथा सभी कुछ करने में समर्थ होकर भी सदैव निरभिमान-नम्र बना रहना चाहिए।
इस प्रकार बारह अंगों के पाठी होना, करणसत्तरी और चरणसत्तरी के गुणों को धारण करना, आठ प्रभावनाएँ करना और तीन योगों का निग्रह, करना, यह उपाध्याय जी.के २५ गुण हैं।