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8 उपाध्याय 8
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करते । फिर उसके फल, फूल पत्र आदि के छेदन-भेदन का उपदेश तो दे ही कैसे सकते हैं ?
किसी-किसी कहना है कि पाँच स्थावर कायों में जीव ठीक तरह दिखाई नहीं देता। अतएव उनमें जीव के अस्तित्व की श्रद्धा कैसे की जाय ? उन्हें जानना चाहिए कि—(१) जैसे शरीर के भीतर की हड्डी सजीव होती है उसी प्रकार पृथ्वी के भीतर के पाषाण, मृत्तिका आदि भी सजीव ही होते हैं। बाहर निकालने के बाद, शस्त्रप्रयोग से वे निर्जीव हो जाते हैं । (२) रेल के एंजिन में पानी बदलना पड़ता है, सो इसी कारण कि वह गर्मी से निर्जीव हो जाता है । (३) प्रत्यक्ष देखते हैं कि अग्नि अपना भक्ष्य मिलने से जिन्दी रहती है; अन्यथा मर जाती है। (४) वायु में प्रत्यक्ष ही गमन करने की शक्ति है । (५) हरितकाय, मनुष्य के समान पृथ्वी और पानी के संयोग से उत्पन्न होती है। वनस्पति अपनी बाल्यावस्था में कोमल होती है, तरुणावस्था में बहारदार होती है और वृद्धावस्था में दीन-हीन तथा दुर्बल हो जाती है । वनस्पति में रुग्णता, नीरोगता आदि जीव के अनेक विकार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। अब भारतवर्ष के प्रसिद्ध डाक्टर जगदीशचन्द्र ने यंत्रों के द्वारा भी दिखला दिया है कि वनस्पति निर्जीव नहीं, सजीव है ।
अाचारांगसूत्र में कहा है कि-जैसे जन्म के अन्धे, बहिरे, गँगे और अपंग मनुष्य को तीखे शस्त्र से, मस्तक से लेकर पैरों तक छेद-भेदे तो उसे दुःख होता है, किन्तु वह उस दुःख को प्रकाशित नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्थावर जीवों के छूने मात्र से उन्हें दुःख होता है, मगर बेचारे कर्माधीन होकर, परवश में पड़े हुए हैं। वे अपने दुःख को प्रकट नहीं कर सकते । ऐसे अनाथ निराधार जीवों की रक्षा पूर्ण संयमी ही कर सकते हैं।
(६-६) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-इन चार प्रकार के जीवों की भी रक्षा करना संयम का प्रधान अङ्ग है । साधुगण इनकी रक्षा के लिए सदैव प्रमार्जना और प्रतिलेखना आदि में तत्पर रहते हैं । वे किसी भी त्रस जीव की हिंसा मन से भी नहीं चाहते तो वचन से उपदेश कैसे दे सकते हैं ?