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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
के बराबर शरीर धारण करे तो उनका एक लाख योजन के जम्बूद्वीप में भी समावेश न हो ।* इतने अधिक जीवों का पिण्ड जानकर साधु पृथ्वीकाय का स्पर्श भी नहीं करते हैं। फिर मकान बँधवाने, जमीन खुदवाने आदि पृथ्वीकाय की घात करने वाले कार्य तो कर ही कैसे सकते हैं ? साधुगण पृथ्वीकाय की बात का उपदेश भी नहीं देते।
(२) अप्कायसंयम-पानी के एक बूंद में असंख्यात जीव हैं। उस बूंद के सभी जीव निकल कर यदि भ्रमर के बराबर शरीर बनावें तो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में भी उनका समावेश नहीं हो सकता। ऐसा जानकर साधु सचित जल के स्पर्श से दूर रहते हैं। पानी के विरल वृंद पड़ते हों तो भिक्षा के लिए भी बाहर नहीं निकलते । ऐसी स्थिति में स्नान आदि के लिए जलकाय की हिंसा का उपदेश कैसे कर सकते हैं ?
(३) तेजाकायसंयमः-- अग्नि की एक चिनगारी में असंख्यात जीव हैं। सब जीव निकल कर अगर राई के बराबर-बराबर शरीर बनावें तो उनका जम्बूद्वीप में समावेश नहीं हो सकता। ऐसा जानकर साधु अग्नि का स्पर्श वाला आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। तो फिर धूपदीप आदि करने का अथवा पचन-पाचन आदि क्रियाएँ करने का उपदेश किस प्रकार दे सकते हैं ?
(४) वायुकायसंयमः-हवा के एक झपट्टे में असंख्यात जीव हैं। अगर वे सब जीव बड़ के बीज के बराबर शरीर धारण कर लें तो उनका जम्बूद्वीप में समावेश नहीं हो सकता । ऐसा जानकर साधु सदैव सुख-वत्रिका धारण किये रहते हैं। फिर वे वाद्य बजाने या पंखा करने आदि वायुकाय की हिंसा का जनक उपदेश किस प्रकार दे सकते हैं ?
(५) वनस्पतिकायसंयमः-धान्य के प्रत्येक दाने में, एक-एक जीव है। हरितकाय भाजी आदि में असंख्यात जीव हैं और जमीकन्द आदि में अनन्त जीव हैं। ऐसा समझ कर मुनिजन वनस्पति का स्पर्श तक नहीं
* जम्बुद्वीप संख्यात योजन का है, जिसमें कबूतर जैसेसंख्यात अंगुल की काया वाले जीव संख्यात ही समा सकते हैं और पृथ्वी काय के कण में तो असंख्यात जीव हैं, इसलिए जम्बूदीप में थोड़े जीव समाये और बाकी बहत जीव बचे।