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*उपाध्याय *
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जब भगवान् को केवलज्ञान हुआ तो चन्दनवाला ने दीक्षा ग्रहण की । वह ३६००० साध्वियों की नेत्री बनी।
जिस प्रकार भगवान ने द्रव्य से अमुक वस्तु लेना, क्षेत्र से अमुक जगह लेना, काल से अमुक समय पर लेना और भाव से अमुक प्रकार से लेना, यो अभिग्रह धारण किया, इसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी भी अभिग्रह धारण करते हैं।
चरणसत्तरी
जिस क्रिया का निरन्तर पालन किया जाता है उसे चरणगुण कहते हैं उसके ७० भेद इस प्रकार हैं:--
वय-समणधम्म-संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ।
नाणाइ तवो कोह-निग्गहाई चरणमेयं ॥ अर्थ-५ महाव्रत, १० प्रकार का श्रमण धर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार का वैयावृत्य, ह वाड़ ब्रह्मचर्य, ३ ज्ञानादि रत्न, १२ प्रकार का तप और ४ क्रोधादिनिग्रह, यह सब मिल कर ७० प्रकार चरणमत्तरी के हैं। इनमें से प्राचार्य के गुणों में पाँच महाव्रतों का वर्णन किया जा चुका है, दस प्रकार के वैयावृत्य का वर्णन तप के प्रकरण में हो चुका है। है वाड़ों का उल्लेख आचार्यजी के गुणों में हो गया है। १२ तपों का निरूपण तपाचार में कर चुके हैं और चार प्रकार के कषायनिग्रह का निरूपण भी आचार्य के प्रकरण में किया जा चुका है। दस श्रमण धर्मों का, १७ प्रकार के संयम का और तीन रत्नों का दिग्दर्शन यहाँ कराया जायगा ।
दस श्रमणधर्म
खंती-मुत्ती य अजव-मद्दब-लाघव सच्चं । संजम-तव-चियाए बंभचेरगुचीओ ॥