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8 उपाध्याय
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वृद्धि में उद्योगशील रहना चाहिए । केवल साधु का वेश धारण कर लेने से ही कल्याण नहीं हो सकता। वेश तो मात्र इतना अन्तर बतलाता है कि यह गृहस्थ है और यह साधु है । 'लोगे लिंगपोयणं । जो साधुवेश में रह कर गृहस्थ जैसे कार्य करता है वह किल्विषी जाति की नीच देवयोनि में जन्म ग्रहण करता है । उसके बाद बकरा, मुर्गा आदि होकर अपूर्ण आयु में मारा जाना है और अनन्त संसार-भ्रमण करता है। इस तथ्य को समझ कर साधु होने से पहले ही सोच लेना उचित है कि साधु की क्याक्या जबाबदारी है ? साधु का क्या कर्तव्य है ? जब अन्तरात्मा साधुता का पालन करने के लिए उन्साहित हो तो माधु बनना चाहिए और साधु बनने के बाद शुद्धाचार का पालन करके अपनी आत्मा का तथा सदुपदेश आदि के द्वारा अन्य भव्य जीवों का उद्धार करके जैनशासन को खूब प्रदीप्त करना चाहिए। सरलतापूर्वक की हुई स्वल्प क्रिया भी भवभ्रमण मिटाने वाली होती है। ऐसा जान कर उपाध्यायजी झपट का सर्वथा त्याग करके पूर्ण सरलता धारण करते हैं । उनके मन, वचन और कर्म में लेशमात्र भी अन्यथापन नहीं होता।
(४) मार्दवधर्म :-अभिमानरूपी शत्रु का निग्रह करके विनम्रता, विनयशीलता को धारण करना मार्दवधर्म है । विनय महान गुण है। जिनशासन का मूल विनय ही है। विनय होने पर क्रमशः ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है । अतएव कभी भी, किसी भी बात का अभिमान नहीं करना चाहिए। अगर संस्कारवश कभी अभिमान का भाव उत्पन्न हो तो इस प्रकार विचार करना चाहिए :
*विणयो जिणसासणमूलं, विण श्रो निव्वाणसाहग्गो।
विणयाओ विष्पमुकत्स, कुओ धम्मो कुरो तवो? ।।
अर्थात्-विनय ही जिनशासन का मूल है और विनय ही मुक्तिपथ में सहायक है । जो विनय से रहित है उसमें न संयम रहता है, न तप रहता है । सूत्र-विणया ो नाणं, नाणाओ दसणं, दमणाश्रो चरणं, चरणाम होई मोक्खो।
अर्थात्-विनय से ज्ञान की राप्ति होती है, ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, सम्यक्त्व से चारित्र प्राप्त होता है और चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार विनय से कमशः उत्तमोत्तम गुण प्राप्त होकर अन्त में मोक्ष मिलता है।