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प्रिय अवसर के अनुकूल निर्दोष वचन ही बोलना चाहिए | सत्य ही धर्म का मूल है । सत्य ही मनुष्य का उत्तम आभूषण है । सत्यवादी को संसार में किसी का भय नहीं होता । वह लोक में अपनी उज्ज्वल कीर्ति का प्रसार करता है और स्वर्ग तथा मोक्ष का अधिकारी बनता है ।
* उपाध्याय
(७) संयमधर्म - स्वच्छंदाचार को रोक कर अपनी इन्द्रियों को, और अन्तःकरण को काबू में रखना संयमधर्म कहलाता है । यह संयम ही मोक्ष प्रदान करने वाला है। संयम के अभाव में कभी किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। सच्चे संयमी को इस लोक में लाभ-लाभ का, सुख-दुःख का और संयोग-वियोग का हर्ष या शोक नहीं होता । वे सदैव आनन्द में रहते है । तुच्छ समझा जाने वाला प्राणी भी संयम को ग्रहण करके इसी लोक में नरेन्द्रों और सुरेन्द्रों का पूज्य वन जाता है । जिनेन्द्रप्ररूपित संयम की तुलना कुमार्गगामियों के संयम से नहीं की जा सकती । नमि राजर्षि ने शक्रेन्द्र से कहा था—
मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं घर सोलसिं ॥
अर्थात् – जो अज्ञानी-हिंसाधर्मी करोड़ों पूर्व वर्ष तक महीने -महीने का उपवास करता हो, पारणे में कुशाग्र पर आ जावे इतना अन्न खाता हो और अंजलि भर पानी पीता हो, और सम्यग्दृष्टि सिर्फ एक नवकारसी का तप करे, तो भी वह अज्ञानी का हिंसामूलक कठोर तप सु-आख्यात धर्म की सोलहवीं कला (भाग) की बराबरी नहीं कर सकता । ऐसे महान् लाभदायक
+ श्लोक — सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् । ब्रूयात् सत्यम् प्रियम् || प्रियं च नानृतं ब्रूयात् ह्य ेष धर्मः सनातनः ॥१३४॥
अर्थ - मनुजी अपनी स्मृति के चतुर्थ अध्याय में कहते हैं कि - सत्य बोलो, प्रिय कर बोलो, सत्य भी प्रियकर बोलो, किन्तु सत्य होकर भी जो अप्रिय हो वह मत बोलो, किसी को प्रसन ( खुश) करने को भी झूठ मत बोलो, किन्तु सदैव हितकारी पथ्यकारी बोलो, यही सनातनधर्म है ।