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दें और अपने शरीर का ही विचार कर। जिस शरीर को तुम अपना मानते और प्राणों से भी अधिक प्यारा समझते हो, स्नान, भोजन, वस्त्र आदि के द्वारा जिसका रक्षण - पोषण करते हो, जिसके लिए पाप-पुण्य का भी विचार नहीं करते हो, वह शरीर भी क्या तुम्हारी आज्ञा मानता है ? तुम्हारी इच्छा की परवाह करता है ? वही शरीर नाना प्रकार की व्याधियों का घर बन कर तुम्हें परेशान करता है। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध जराजीर्ण, रुग्ण और अन्त में सर्वथा समर्थ हो जाता है । ऐसी दशा में अन्य जनों का तो कहना ही क्या है ?
* उपाध्याय
और भी सोचो - तुम कहते हो - यह शरीर मेरा है, माता-पिता कहते हैं - यह मेरा पुत्र है । भाई- भगिनी कहते हैं - यह मेरा भाई हैं । स्त्री कहती है - यह मेरा भरतार है । पुत्र-पुत्री कहते हैं -- यह मेरा पिता है । काका-काकी कहते हैं - यह मेरा भतीजा है । मामा-मामी कहते हैं - यह मेरा भानजा है । इस प्रकार अनेक नर-नारी इस शरीर को अपना-अपना बतलाते हैं । अब सोचो - यह शरीर किस का है ! तुम्हारा है या तुम्हारे स्वजनों का है ? अगर इस पर किसी की मालिकी हो तो वह इसे रख ले ! आज्ञा में चलावे ! कोई रोग न आने दे, बुढ़ापा न आने दे, तब समझा जाय कि शरीर पर उसका स्वामित्व है । मगर यहाँ तो यह उक्ति चरितार्थ होती है :
ना घर तेरा, ना घर मेरा, चिड़िया - रैन बसेरा ॥
इस प्रकार सम्यक् विचार करके ममत्व-भाव त्याग कर सच्चा सुख प्राप्त करना ही उचित है। मनुष्य को सोचना चाहिए कि जड़ के संसर्ग से मैं ने इस संसार में असीम विडम्बना भुगती है । यह मेरी बड़ी भारी भूल हुई, क्योंकि जड़ का और मेरा कोई संबंध नहीं है। जड़ निराला है और मैं चेतन निराला हूँ | जड़ शाश्वत है, चेतन शाश्वत है। जड़ विनश्वर है, मैं अविनश्वर
* गाथा - एगोऽहं नत्थि मे कोइ । नाहमन्नस्स कस्सइ ||
अर्थात् — मैं अकेला हूँ, मेरा कोई भी नहीं है और न मैं किसी का हूँ। ऐसी वृत्ति से सदैव विचरे ।