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________________ [ २८५ दें और अपने शरीर का ही विचार कर। जिस शरीर को तुम अपना मानते और प्राणों से भी अधिक प्यारा समझते हो, स्नान, भोजन, वस्त्र आदि के द्वारा जिसका रक्षण - पोषण करते हो, जिसके लिए पाप-पुण्य का भी विचार नहीं करते हो, वह शरीर भी क्या तुम्हारी आज्ञा मानता है ? तुम्हारी इच्छा की परवाह करता है ? वही शरीर नाना प्रकार की व्याधियों का घर बन कर तुम्हें परेशान करता है। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध जराजीर्ण, रुग्ण और अन्त में सर्वथा समर्थ हो जाता है । ऐसी दशा में अन्य जनों का तो कहना ही क्या है ? * उपाध्याय और भी सोचो - तुम कहते हो - यह शरीर मेरा है, माता-पिता कहते हैं - यह मेरा पुत्र है । भाई- भगिनी कहते हैं - यह मेरा भाई हैं । स्त्री कहती है - यह मेरा भरतार है । पुत्र-पुत्री कहते हैं -- यह मेरा पिता है । काका-काकी कहते हैं - यह मेरा भतीजा है । मामा-मामी कहते हैं - यह मेरा भानजा है । इस प्रकार अनेक नर-नारी इस शरीर को अपना-अपना बतलाते हैं । अब सोचो - यह शरीर किस का है ! तुम्हारा है या तुम्हारे स्वजनों का है ? अगर इस पर किसी की मालिकी हो तो वह इसे रख ले ! आज्ञा में चलावे ! कोई रोग न आने दे, बुढ़ापा न आने दे, तब समझा जाय कि शरीर पर उसका स्वामित्व है । मगर यहाँ तो यह उक्ति चरितार्थ होती है : ना घर तेरा, ना घर मेरा, चिड़िया - रैन बसेरा ॥ इस प्रकार सम्यक् विचार करके ममत्व-भाव त्याग कर सच्चा सुख प्राप्त करना ही उचित है। मनुष्य को सोचना चाहिए कि जड़ के संसर्ग से मैं ने इस संसार में असीम विडम्बना भुगती है । यह मेरी बड़ी भारी भूल हुई, क्योंकि जड़ का और मेरा कोई संबंध नहीं है। जड़ निराला है और मैं चेतन निराला हूँ | जड़ शाश्वत है, चेतन शाश्वत है। जड़ विनश्वर है, मैं अविनश्वर * गाथा - एगोऽहं नत्थि मे कोइ । नाहमन्नस्स कस्सइ || अर्थात् — मैं अकेला हूँ, मेरा कोई भी नहीं है और न मैं किसी का हूँ। ऐसी वृत्ति से सदैव विचरे ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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