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________________ २८४ ] ® जैन-तत्व प्रकाश जाता है । जीव भी स्वभाव से निर्लेप और हलका है। किन्तु आठ कर्मों के लेप के कारण वह भारी हो रहा है और गरमागर में डूब रहा है। जीव में ज्यों-ज्यों ममत्व की कमी होगी-उपमें लाघव श्राएगा, त्यों-त्यों वह ऊपर उठता जायगा । अन्त में वह पूरी तरह ऊपर आ जायगा-मुक्ति प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर ममत्व का समूल नाश होते ही संसार के अन्त-मोक्षस्थान को आत्मा प्राप्त कर लेता है । __ संसार में जितने भी दुःख हैं, उन सब का मूल कारण ममत्व ही है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण लीजिये । जब कोई आदमी नदी में डूबता है तो उसके सिर पर बेशुमार पानी रहता है, किन्तु उसे तनिक भी बोझ नहीं मालूम होता। यदि वही मनुष्य उस जल में से निकल कर एक घड़ा ही पानी भर कर सिर पर रख लेता है तो उसे बोझ लगता है। इसका कारण यह क्यों न समझ लिया जाय कि जलाशय के पानी पर किसी का ममत्व नहीं होता और इसी कारण वह भारभूत भी नहीं होता । इसके विपरीत घड़े के पानी में ममत्व उत्पन्न हो जाता है और इस कारण वह भारभूत बन जाता है। संसार में प्रतिक्षण अनेकों की धनादि की हानि होती रहती है। उससे आपको दुःख क्यों नहीं होता ? और जिसे आप अपना समझते हैं, उस धन या जन की हानि से आपको दुःख होता है। यहाँ तक कि एक पाई गुम हो जाने पर भी आपका चेहरा मलीन हो जाता है। इसका कारण कभी आप सोचते हैं ? इसका एक मात्र कारण ममत्व है। अतएव स्पष्ट है कि ममता ही वास्तव में दुःख का कारण है । विवेकशील मनुष्य को विचार करना चाहिए कि हे जीव ! जिस पर तू ममता करता है, जिसे तू 'मेरा, मेरा' करके ग्रहण करता है, वे क्या वास्तवमें तेरे हैं ? तनिक आन्तरिक नेत्र खोलकर देख। अगर वे तेरे होते तो तेरे हुक्म में चलते । तेरे दुःख के कारण न बनते। मगर कहीं ऐसा देखने में नहीं आता, बल्कि उलटा ही दिखाई देता है । दूसरे पदार्थों की बात जाने ४ श्रापा जहाँ है आपदा, चिन्ता जहाँ है क्षोभ । ज्ञान बिना यह नहिं मिटे, जालिम मोटा रोग ।।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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