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________________ २८६ ] ® जन-तत्त्व प्रकाश हूँ। जड़ में भेद और संघात होता रहता है, मैं अवस्थित हूँ। जड़ की ममता छूटने पर ही मैं निज स्वरूप को प्राप्त कर सकूँगा और उसके छोड़ने का यही शुभ अवसर है। ऐसा विचार कर शरीर संबंधी ममत्व को घटाना एवं हटाना चाहिए । इस तरह द्रव्य से वस्त्र-पात्र आदि सामग्री को कम करे और भाव से कषायों की न्यूनता करे तो धीरे-धीरे पूरी तरह उपाधि और कषायों का त्याग करके परम सुख का पात्र बन जाता है । (६) सत्यधर्म-असत्य रूप शत्रु को निर्मल करने वाला सत्यथर्म जगत्-विख्यात है। 'सत्यानास्ति परो धर्मः' सत्य के बराबर दूसरा धर्म नहीं है। परमोत्कृष्ट धर्म सत्य ही है। इसी कारण वह सबको प्रिय है । आप किसी को सच्चा कहेंगे तो वह प्रसन्न हो जायगा और झूठा कहेंगे तो बुरा मानेगा । इसी से उसकी सुरक्षा का बड़ा प्रबंध किया गया है: वचन-रत्न मुख-कोठरी, होठ कपाट जड़ाय । पहरायत बत्तीस हैं, रखे परवश पड़ जाय ॥ अर्थात्-जैसे उत्तम रत्न को तिजोरी में बंद करके मजबूत किवाड़ लगा कर ऊपर से पहरेदारों की व्यवस्था की जाती है, ताकि कोई चोर आदि उसे हरण न करले; उसी प्रकार वचन रूपी अनमोल रत्न की रक्षा के लिए भी मुख रूप तिजोरी के होठ रूप मजबूत किवाड़ लगा कर दांत रूप ३२ पहरेदार खड़े किये गये हैं। जो खाते-खाते बचा हो, वह झठा (जूठन) कहलाता है । उसे कोई भी भला आदमी अंगीकार नहीं करता। तो फिर सत्पुरुष साक्षात् झूठे को किस प्रकार स्वीकार कर सकते हैं ? अर्थात् सज्जन पुरुष प्राणान्त कष्ट श्रा पड़ने पर भी, किंचत् भी असत्य का श्राश्रय नहीं लेते । वे विचार, उच्चार और आचार में सत्य ही सत्य रक्खेंगे। काने को काना कहना, चोर को चोर कहना, कोढ़ी को कोढ़ी कहना, व्यभिचारी को व्यभिचारी कहना, इत्यादि कथन यों तो सच्चा मालूम होता है किन्तु दुःखप्रद होने से वे वचन भी मिथ्या ही गिने जाते हैं । अतएव निरर्थक बातें करके समय न गवाते हुए, प्रयोजन होने पर सत्य, तथ्य, पथ्य,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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