________________
[ २८३
का महाभद्रप्रतिमा व्रत, १६ दिन का शिवभद्रप्रतिमा व्रत, १२ बार भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा और २२६ बेलों का तप किया था ! यह सारी तपस्या चौविहार ही की थी। इस तप के समय में भगवान् ने पानी भी ग्रहण नहीं किया । भगवान् के इस घोर तप के सामने तेरी तपस्या कितनी है ?
** उपाध्याय *
—श्रुत का मद प्राप्त हो तो सोचना चाहिए कि जगत में एक से एक बुद्धिशाली पुरुष हुए हैं और आज भी विद्यमान हैं । गणधर महाराज की बुद्धि का क्या कहना है ? भगवान् के मुख से निकले हुए 'उपपन्ने वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' अर्थात् संसार के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं और ध्रुव भी रहते हैं; इन तीन शब्दों को सुन कर इतना श्रुतज्ञान प्राप्त कर लेते थे कि जिस श्रुत को लिखने के लिए इतनी स्याही की दरकार होती है कि जिसमें १६३८३ हाथी डूब जाएँ। इन अपूर्व और अद्भुत बुद्धि से सम्पन्न महापुरुषों के समक्ष तेरी बुद्धि की क्या गणना है ?
८ - जब ऐश्वर्य-मद का विष हृदय में व्याप्त होने लगे तो विचार करना चाहिए – अरे नर ! तीर्थकरों के परिवार की तुलना में तेरा परिवार किसी गिनती में नहीं है ।
इस प्रकार के विचार करके मद को उत्पन्न होते ही गला देना चाहिए । महान् कष्ट से, महान् पुण्य के योग से जो उत्तमता प्राप्त हुई है, उसे अभिमान की ज्वाला में भस्म नहीं कर देना चाहिए, वरन उस उत्तमता का सदुपयोग करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए ।
(५) लाघवधर्म :
: - ममत्व रूप रिपु को दलन करके समभाव की स्थिति को प्राप्त करना लाघवधर्म है । छोटी-सी नदी को पार करने वाले भी जब लंगोट के सिवाय और कुछ नहीं रखते तो संसार रूपी महादुस्तर सागर को पार करने के लिए तो और भी अधिक हलकापन अर्थात् लाघव चाहिए । पानी में तैरने के स्वभाव वाले तूंबे पर सन के और मिट्टी के आठ लेप चढ़ा दिये जाएँ और उसे पानी में डाला जाय तो वह डूब जाता है । फिर ज्यों-ज्यों वह मिट्टी गलती जाती है, लेप हटता जाता है, त्यों-त्यों तूंचा ऊपर उठता जाता है और पूरी तरह लेप रहित होने पर बिलकुल ऊपर आ